
Kathbaddi Mela in Pauri Garhwal: पौड़ी गढ़वाल का पौराणिक मेला - कठबद्दी: आस्था, परंपरा और शक्ति का संगम
Kathbaddi Mela in Pauri Garhwal: उत्तराखंड की धरती सिर्फ हिमालय की ऊंची चोटियों, नदियों और झीलों के लिए ही नहीं जानी जाती, बल्कि यहां की लोक संस्कृति, परंपराएं और धार्मिक आस्थाएं भी इसकी पहचान हैं। इन्हीं परंपराओं में से एक है पौड़ी गढ़वाल का कठबद्दी मेला (Kathbaddi Mela in Pauri Garhwal), जो हर साल श्रद्धा, सामूहिकता और लोक आस्था का अद्भुत उदाहरण बनता है। सिर पर पारंपरिक पगड़ी, माथे पर लाल टीका, हाथ में चमचमाती तलवार और ढोल-दमाऊं की धुनों के बीच कठबद्दी का आयोजन गांववासियों के जीवन की धड़कन बन चुका है।
कहां होता है कठबद्दी मेला?
कठबद्दी मेला हर साल पौड़ी गढ़वाल जिले (Pauri Garhwal) के खिर्सू ब्लॉक के ग्वाड़ गांव या कोठगी गांव में बारी-बारी से आयोजित किया जाता है। यह परंपरा सदियों पुरानी है और आज भी उतनी ही श्रद्धा और उल्लास के साथ निभाई जाती है, जितनी पहले निभाई जाती थी।
आस्था और परंपरा का अद्भुत संगम
इस साल कठबद्दी मेले का आयोजन ग्वाड़ गांव में किया गया। रविवार को कुल देवताओं की पूजा-अर्चना से इस दो दिवसीय मेले का शुभारंभ हुआ। रातभर ढोल-दमाऊं की गूंज, जागरण और देव मंडाण से पूरा गांव भक्तिमय हो गया। सोमवार को देव स्नान और विधिवत पूजा के बाद गांव के कुल देवताओं का अवतरण हुआ और उसके बाद शुरु हुआ मेले का सबसे खास और प्रतीकात्मक भाग – कठबद्दी रस्म (Kathbaddi Ritual)।
कठबद्दी क्या है?
‘कठबद्दी’ एक गढ़वाली शब्द है – ‘कठ’ यानी खिसकाना या खिंचना और ‘बद्दी’ यानी परंपरा या रस्म। इस रस्म में गांव के कुल देवताओं (Clan Deities) के प्रतीक चिन्हों को विशेष रूप से सजाकर रस्सियों की मदद से एक निश्चित दूरी तक सरकाया जाता है। यह रस्म देव शक्ति और सामूहिकता का प्रतीक है। इसे देखने हजारों की संख्या में श्रद्धालु हर साल उमड़ते हैं।
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भव्य श्रृंगार और पवित्र वातावरण
गांव के पंचायत चौक पर जब पारंपरिक वेशभूषा में सजे लोग कठबद्दी को सजाकर लाते हैं, तो वह दृश्य देखने लायक होता है। लाल टीका, पगड़ी, कमरबंद और तलवार के साथ सजी कठबद्दी को जब रस्सियों से खींचकर 300 मीटर तक खिसकाया जाता है, तब पूरे वातावरण में जयकारों और ढोल-दमाऊं की गूंज एक नई ऊर्जा भर देती है।
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ग्रामीण संस्कृति की जड़ों से जुड़ाव
कठबद्दी मेला केवल धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक उत्सव (Cultural Festival) है, जो प्रवासी ग्रामीणों को भी अपनी जड़ों से जोड़ता है। चाहे कोई मुंबई में काम करता हो या दिल्ली में, इस मेले के लिए वह अपने गांव जरूर लौटता है। यह मेला गांव की पहचान, आत्मा और एकता का प्रतीक बन चुका है।
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एकता और शक्ति का प्रतीक
जब सैकड़ों लोग मिलकर कठबद्दी को रस्सी से खींचते हैं, तो वह गांव की एकता और सामाजिक सामूहिकता (Social Unity and Power) का प्रतीक बन जाता है। इस आयोजन से यह संदेश जाता है कि जब गांववासी एकजुट होते हैं, तो वे किसी भी बाधा को पार कर सकते हैं। यह प्रतीकात्मक ‘खींच’ ग्रामीणों को जोड़ता भी है और मजबूत भी करता है।
युवाओं के लिए परंपरा से जुड़ने का अवसर
जहां एक ओर बुजुर्ग इस मेले को संस्कारों और आस्था का प्रतीक मानते हैं, वहीं युवा वर्ग इसे अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ने और गर्व महसूस करने का मौका मानता है। युवा पारंपरिक वस्त्र पहनकर ढोल की थाप पर झूमते नजर आते हैं। यह एक ऐसा दृश्य है, जो दर्शाता है कि परंपरा और आधुनिकता कैसे एक साथ चल सकती हैं।
खरीदारी और मनोरंजन भी है हिस्सा
कठबद्दी मेले में सिर्फ धार्मिक रस्में ही नहीं होतीं, बल्कि इसमें स्थानीय बाजार, हस्तशिल्प की दुकानें, खाने-पीने की स्टॉल भी लगती हैं। बच्चों के लिए झूले, बुजुर्गों के लिए बैठने के स्थान और युवाओं के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम, इस मेले को एक परिवारिक उत्सव (Family Festival Uttarakhand) बना देते हैं।
ढोल-दमाऊं और लोक संगीत की छाप
गढ़वाल की पहचान बने ढोल-दमाऊं की थाप कठबद्दी मेले की आत्मा होती है। इनके बिना यह आयोजन अधूरा सा लगता है। जैसे ही ढोल बजते हैं, पूरा वातावरण भक्तिमय हो जाता है। लोकगीत, भजन और जागरण की प्रस्तुति इस मेले को एक जीवंत सांस्कृतिक मंच (Live Cultural Platform) में बदल देती है।
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कठबद्दी मेला क्यों है इतना खास?
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यह गढ़वाल की जीवंत लोक संस्कृति का प्रतीक है।
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देवताओं के आशीर्वाद से गांव की सुख-समृद्धि की कामना होती है।
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यह परिवारों और प्रवासियों को जोड़ने वाला त्योहार है।
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युवाओं को अपनी जड़ों से जोड़ने का जरिया है।
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सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक स्तर पर सामूहिकता का सुंदर उदाहरण है।
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