
Kartikeyapur or Katyuri Dynasty in Hindi: जानें उत्तराखंड के कार्तिकेयपुर या कत्यूरी राजवंश के बारें में विस्तार से
Kartikeyapur or Katyuri Dynasty in Hindi: कत्यूरी शासक नरसिंह देव ने राजधानी को कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) से स्थानांतरित कर बैजनाथ (बागेश्वर) में स्थापित किया। लगभग 675 ईस्वी के आसपास मध्य हिमालय का सबसे बड़ा राज्य ब्रह्मपुर पतन की स्थिति में था। इसी समय, प्राचीन कुणिन्द वंश की एक शाखा उत्तर-पश्चिमी गढ़वाल क्षेत्र में अपनी शक्ति बढ़ाने में लगी हुई थी। इसने कई लघु राज्यों को अधीन कर, मध्य हिमालय में एक शक्तिशाली सत्ता के रूप में उभरकर कत्यूरी राजवंश की स्थापना की।
कार्तिकेयपुर या कत्यूरी राजवंश (700–1050 ई.)
प्रारम्भिक राजधानी: कार्तिकेयपुर (वर्तमान जोशीमठ)
द्वितीय राजधानी: बैजनाथ (बागेश्वर)
शीतकालीन राजधानी: ढिकुली (रामनगर)
राजभाषा: संस्कृत
लोकभाषा: पालि
कत्यूरी राजवंश की विशेषताएँ
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यह राजवंश उत्तराखण्ड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश माना जाता है।
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इस वंश में कुल 14 नरेश हुए और अब तक 9 ताम्रलेखीय अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं।
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सभी अभिलेख कुटिल लिपि में लिखे गए हैं।
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700 ईस्वी से लेकर लगभग तीन शताब्दियों तक इस वंश ने प्रभावी शासन किया।
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प्रारंभ में राजधानी कार्तिकेयपुर में थी, जिसे बाद में कत्यूर घाटी (बैजनाथ) में स्थानांतरित कर दिया गया। इसी कारण इन्हें “कत्यूरी” शासक कहा जाने लगा।
राजवंश की शाखाएँ
कत्यूरी वंश के भीतर तीन प्रमुख पारिवारिक शाखाएँ थीं:
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बसन्तदेव वंश / खर्परदेव वंश
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निम्बरदेव वंश
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सलोणादित्य वंश
इन तीनों शाखाओं से संबंधित शासकों ने उत्तराखण्ड तथा इसके आस-पास के क्षेत्रों में लगभग 300 वर्षों तक शासन किया।
मूल वंश एवं ऐतिहासिक साक्ष्य
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कत्यूरी शासकों की उत्पत्ति मूलतः अयोध्या से मानी जाती है।
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इस वंश का इतिहास बागेश्वर, पांडुकेश्वर, तथा बैजनाथ आदि स्थानों से प्राप्त ताम्रलेखों और पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर तैयार किया गया है।
यह राजवंश न केवल उत्तराखण्ड के इतिहास का एक प्रमुख अध्याय है, बल्कि इसने क्षेत्रीय एकता, सांस्कृतिक उन्नति एवं शासन की एक सुदृढ़ व्यवस्था की नींव भी रखी।
बसंत देव वंश / खर्परदेव वंश (Basant Dev Dynasty / Kharpar Dev Dynasty)
बसंतदेव (Basant Dev)
बागेश्वर से प्राप्त त्रिभुवनराज के शिलालेख से ज्ञात होता है कि कत्यूरी वंश का प्रथम शासक बसंतदेव था। वह एक शक्तिशाली और प्रभावशाली राजा था, जिसने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ जैसी उच्च उपाधियाँ धारण की थीं।
बसंतदेव ने धार्मिक आस्था का परिचय देते हुए जोशीमठ में नृसिंह मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके अतिरिक्त, उसने बागेश्वर के निकट स्थित एक मंदिर को ‘स्वर्णेश्वर’ नामक गाँव दान में दे दिया था।
प्रारंभ में बसंतदेव स्वतंत्र शासक नहीं था। उसकी नियुक्ति कन्नौज के शासक यशोवर्मन द्वारा की गई थी। लेकिन जब यशोवर्मन, कश्मीर नरेश ललितादित्य से युद्ध में पराजित हो गया, तो उसने अपने राज्य का बड़ा हिस्सा खो दिया।
इसी अवसर का लाभ उठाकर बसंतदेव ने स्वतंत्र ‘कार्तिकेयपुर राजवंश’ की नींव रखी, और जोशीमठ के पास स्थित कार्तिकेयपुर को अपनी राजधानी बनाया।
बागेश्वर के शिलालेख में बसंतदेव की पत्नी का नाम राजनारायणी देवी उल्लिखित है।
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अज्ञातनामा शासक
बसंतदेव के पश्चात उसका पुत्र गद्दी पर बैठा, किंतु दुर्भाग्यवश बागेश्वर शिलालेख में उसका नाम नष्ट हो चुका है, जिससे उसकी पहचान संभव नहीं हो पाई है। अतः इतिहास में उसे ‘अज्ञातनामा’ के नाम से जाना जाता है।
खर्परदेव वंश (Kharperdev Dynasty)
खर्परदेव (Kharperdev)
अज्ञातनामा शासक के बाद बागेश्वर शिलालेख में जिस शासक का उल्लेख मिलता है, वह है खर्परदेव। इतिहासकारों द्वारा उसे कार्तिकेयपुर राजवंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
खर्परदेव का समय भी कन्नौज नरेश यशोवर्मन के समकालीन रहा है। उसकी शक्ति और स्वतंत्र शासन से यह स्पष्ट होता है कि उसने कार्तिकेयपुर राज्य को एक संगठित और सुदृढ़ रूप प्रदान किया।
कल्याणराज (Kalyanraj)
खर्परदेव के पश्चात उसका पुत्र कल्याणराज (या अधिराज) शासक बना। बागेश्वर से प्राप्त शिलालेखों में उसकी पत्नी का नाम लद्धा देवी उत्कीर्ण है।
त्रिभुवनराज (Tribhuvan Raj)
कत्यूरी वंश में कल्याणराज के पश्चात त्रिभुवनराज ने शासन की बागडोर संभाली। उनके शासनकाल की एक विशेष घटना थी कि उन्होंने किसी किरात-पुत्र से संधि की थी, जिससे स्पष्ट होता है कि वे राजनयिक दृष्टि से कुशल शासक थे।
त्रिभुवनराज ने ब्याघ्रेश्वर मंदिर को सुगंधित द्रव्यों के उत्पादन हेतु भूमि दान में प्रदान की थी, जो उस समय की धार्मिक-सामाजिक नीतियों को दर्शाता है।
इसी काल में पाल वंश के शासक धर्मपाल ने गढ़वाल क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया, जिससे खर्परदेव वंश का अंत हो गया और एक नये राजवंश – निम्बर वंश (Nimber Dynasty) की नींव पड़ी।
निम्बर वंश (Nimber Dynasty)
निम्बर (Nimber)
त्रिभुवनराज के पश्चात निम्बर ने कत्यूरी वंश की सत्ता संभाली और स्वयं के नाम पर निम्बर वंश की स्थापना की।
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बागेश्वर शिलालेख में इन्हें “निंबर्त” और
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पाण्डुकेश्वर के ताम्रलेख में “निम्वरम्” नाम से उल्लेखित किया गया है।
निम्बर ने पाल वंश से संधि कर कूटनीतिक स्थिरता स्थापित की। धार्मिक दृष्टि से भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा — उन्होंने जागेश्वर में विमानों (मंदिर संरचनाओं) का निर्माण करवाया।
उनकी रानी का नाम दाशू देवी या नाथू देवी था।
इतिहासकार निम्बर को “शत्रुहंता” की उपाधि से भी संबोधित करते हैं, जो उनके शौर्य और वीरता का संकेत देती है।
इष्टदेवगण (Ishta Devgan)
अभिलेखों के अनुसार, निम्बर के पश्चात उनके पुत्र इष्टदेवगण (Ishta Devgan) इस वंश के एक स्वतंत्र और शक्तिशाली शासक बने।
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अभिलेखों में उन्हें “परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर” जैसे गरिमामय शब्दों से संबोधित किया गया है, जो उनके गौरवपूर्ण शासन को दर्शाता है।
इष्टदेवगण ने समस्त उत्तराखण्ड को एकसूत्र में जोड़ने का प्रयास किया और सांस्कृतिक एकता को प्रोत्साहन दिया।
धार्मिक स्थापत्य में उनका विशेष योगदान रहा:
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उन्होंने जागेश्वर में निम्न मंदिरों का निर्माण करवाया:
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लकुलीश मंदिर
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नटराज मंदिर
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नवदुर्गा मंदिर
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महिषमर्दिनी मंदिर
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इनके शासन की रानी का नाम धरा देवी था, जो धार्मिक कार्यों में सक्रिय भागीदारी के लिए जानी जाती थीं।
ललितशूर देव (Lalitshur Dev)
इष्टदेवगण के पश्चात उनके पुत्र ललितशूर देव ने कत्यूरी वंश की बागडोर संभाली। धार्मिक ग्रंथों और अभिलेखों में ललितशूर देव की तुलना वराह अवतार से की गई है, जो कलीकाल के पापों से ग्रस्त धरती के उद्धारक के रूप में माने जाते हैं।
उनकी दो रानियाँ थीं —
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लया देवी
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सामा देवी
ललितशूर देव के शासनकाल में सर्वाधिक ताम्र अभिलेख उपलब्ध हुए हैं, जिससे उनका प्रशासनिक और धार्मिक कार्यों में गहरा योगदान सिद्ध होता है। उन्होंने अपने शासन के 21वें और 22वें वर्ष में दो प्रमुख ताम्रपत्र पांडुकेश्वर से उत्कीर्ण कराए।
🔹 महत्वपूर्ण तथ्य: पांडुकेश्वर ताम्रपत्र के लेखक गंगाभद्र थे और यह अभिलेख ललितशूर देव के शासनकाल का प्रमाण है।
भूदेव (Bhoodev)
ललितशूर देव के बाद उनके पुत्र भूदेव ने राजसिंहासन संभाला। वह लया देवी की संतान थे। ऐतिहासिक अभिलेखों में उन्हें “राजाओं का राजा” कहा गया है, जो उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व और शासन क्षमता को दर्शाता है।
भूदेव एक परम ब्राह्मण भक्त थे और उन्होंने अपने शासनकाल में बौद्ध धर्म का विरोध किया। उनके काल में प्रसिद्ध बैजनाथ मंदिर का निर्माण कराया गया, जो आज भी उनके धार्मिक दृष्टिकोण का प्रतीक है।
🔹 बागेश्वर ताम्रलेख भूदेव के शासन का महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
सलोणादित्य वंश (Salonaditya Dynasty)
सलोणादित्य (Salonaditya)
भूदेव के बाद सलोणादित्य ने शासन संभाला और इसी के नाम पर सलोणादित्य वंश की पहचान बनी।
उनकी रानी का नाम सिंधुवली था।
सलोणादित्य को अपनी भुजाओं की शक्ति से शत्रुओं के व्यूह को नष्ट करने वाला वीर शासक बताया गया है।
इच्छटदेव (Ichchatdev)
इच्छटदेव को सलोणादित्य वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
उनकी रानी का नाम सिंधु देवी था।
शासन-व्यवस्था एवं सैन्य नेतृत्व में उनकी विशेष भूमिका रही।
देशटदेव (Deshatdev)
देशटदेव की रानी का नाम पझल्ल देवी था।
उनके बारे में अभिलेखों में उल्लेख है कि वे शत्रुओं के समस्त कुचक्रों को नष्ट करने वाले पराक्रमी राजा थे।
🔹 उनका ताम्रपत्र चंपावत स्थित बालेश्वर मंदिर से प्राप्त हुआ है, जो उनके कालीन प्रशासन और धार्मिक निष्ठा का प्रमाण है।
पद्मदेव (Padmadev)
पद्मदेव को इतिहास में बाहुबल से समस्त दिशाओं को जीतने वाला योद्धा बताया गया है।
उन्होंने बद्रीनाथ मंदिर के लिए भूमि दान किया, जिससे उनका धार्मिक योगदान स्पष्ट होता है।
सुभिक्षराज देव (Subhiksharaj Dev)
सुभिक्षराज देव कार्तिकेयपुर राजवंश का अंतिम शासक था। उसने अपनी राजधानी कार्तिकेयपुर से स्थानांतरित कर सुभिक्षपुर (तपोवन) में स्थापित की। कालांतर में उसके वंशज नरसिंह देव द्वारा राजधानी को पुनः बैजनाथ में स्थानांतरित कर दिया गया।
राजधानी के इस परिवर्तन का प्रमुख कारण प्राकृतिक आपदा को माना जाता है, जिससे कार्तिकेयपुर निवास के योग्य नहीं रहा।
कार्तिकेयपुर राजवंश के उत्तराधिकारी
जब से राजधानी का स्थानांतरण हुआ, उसके पश्चात कार्तिकेयपुर वंश के शासकों के बारे में प्रमाणिक ऐतिहासिक साक्ष्य दुर्लभ हो गए हैं। किंवदंतियों एवं जनश्रुतियों के अनुसार इस वंश में बाद में प्रीतम देव, धाम देव, ब्रह्म देव, एवं वीर देव जैसे शासकों का शासन रहा।
कार्तिकेयपुर राजवंश से संबंधित मुख्य तथ्य
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कार्तिकेयपुर राजवंश के शासनकाल को उत्तराखण्ड की कला का स्वर्ण युग कहा जाता है।
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इस काल में वास्तुकला और मूर्तिकला का अद्भुत विकास हुआ।
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इस वंश के इष्टदेव भगवान कार्तिकेय थे।
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राजा शालिवाहन को इस वंश का आदि पुरुष माना जाता है।
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जागेश्वर मंदिर का निर्माण इन्हीं के द्वारा कराया गया था।
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कत्यूरी शासकों की जनकल्याणकारी नीतियों के कारण कुमाऊँ क्षेत्र में आज भी यह मान्यता है कि कार्तिकेयपुर वंश के अंत के साथ सूर्य अस्त हो गया और अंधकार छा गया।
आदि शंकराचार्य और कार्तिकेयपुर वंश
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कार्तिकेयपुर राजवंश के समय आदि गुरु शंकराचार्य उत्तराखण्ड आए थे।
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कत्यूरी शासकों ने शंकराचार्य की शिक्षाओं को स्वीकार किया और उनके मार्गदर्शन में अनेक प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों का निर्माण कराया, जिनमें प्रमुख हैं:
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पंचकेदार
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पंचबद्री
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व्याघ्रेश्वर मंदिर
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ज्योतिर्मठ (जोशीमठ)
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शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के प्रभाव को कम कर हिंदू धर्म की पुनः स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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उन्होंने केदारनाथ और बद्रीनाथ मंदिरों का जीर्णोद्धार किया।
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जोशीमठ में उन्होंने ज्योतिर्मठ की स्थापना की, जो आज चार प्रमुख मठों में से एक है।
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वर्ष 820 ई. में शंकराचार्य ने केदारनाथ में ही समाधि ली।
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उन्होंने नारद कुंड से विष्णु प्रतिमा निकालकर बद्रीनाथ में पुनः प्रतिष्ठित किया।
पाल वंश (Pal Dynasty)
बैजनाथ अभिलेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ग्यारहवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य कत्यूर क्षेत्र में लखनपाल, त्रिभुवनपाल, रूद्रपाल, उदयपाल, चरूनपाल, महीपाल तथा अनन्तपाल जैसे पाल नामधारी शासकों ने शासन किया।
तेरहवीं शताब्दी में परिस्थितियों के बदलने पर पाल वंशजों ने कत्यूर क्षेत्र को छोड़कर अस्कोट के निकट ऊकू नामक स्थान में अपना नया ठिकाना बनाया और वहीं उन्होंने पाल वंश की पुनः स्थापना की।
मल्ल वंश (Malla Dynasty)
एटकिंसन के अनुसार, नेपाली विजेता अशोकचल्ल का गोपेश्वर शिलालेख 1191 ई. का है। हालांकि, गोपेश्वर के त्रिशूल पर खुदा हुआ अशोकचल्ल की दिग्विजय को दर्शाने वाला शिलालेख अतिथि रहित है।
तेरहवीं शताब्दी में नेपाल में बौद्ध धर्म के अनुयायी मल्ल वंश का उदय हुआ।
बागेश्वर लेख के अनुसार सन् 1223 ई. में क्राचल्लदेव ने कर्तिकेयपुर (कत्यूर) के शासकों को पराजित कर दिया। क्राचल्लदेव स्वयं दुलू का शासक था।
दुलू और जुमना से प्राप्त शिलालेखों से यह स्पष्ट होता है कि तेरहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक कत्यूर राज्य का प्रभाव कुमाऊं-गढ़वाल की लोकगाथाओं में विद्यमान था।
इस साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक अशोकचल्ल को माना जाता है।
कत्यूरी वंश (Katyuri Dynasty)
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संस्थापक: वासुदेव / बसंतदेव
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प्रारंभिक राजधानी: जोशीमठ
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द्वितीय राजधानी: रणचूलाकोट (बागेश्वर)
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कुल देवी: कोट भ्रामरी
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धर्म: शैव
कोट भ्रामरी मंदिर आज भी बागेश्वर में स्थित है और कत्यूरियों की आस्था का प्रमुख केन्द्र रहा है।
“कत्यूरी” शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम एटकिंसन ने किया था।
कत्यूरी शासकों का मूल निवास स्थान राजस्थान माना जाता है।
इस वंश से संबंधित जानकारी हमें लोककथाओं, जागर, तथा अन्य मौखिक परंपराओं से प्राप्त होती है।
“राजुला मालूशाही” गाथा से ज्ञात होता है कि कत्यूर 22 भाई थे, जिनके बीच शासन विभाजित था।
कत्यूरी शासनकाल में राजवंश कई शाखाओं में विभक्त हो गया, जिनमें प्रमुख थे:
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आंसतिदेव राजवंश
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डोटी के मल्ल शासक
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अस्कोट के रजवार
आसन्तिदेव वंश (Asantidev Dynasty)
आसन्तिदेव ने एक स्वतंत्र राजवंश की स्थापना की, जिसे आसन्तिदेव वंश कहा जाता है।
जोशीमठ से प्राप्त एक हस्तलिखित ग्रंथ ‘गुरुपादुक’ के अनुसार, आसन्तिदेव के पूर्वजों में क्रमशः अग्निवराई, फीणवराई, सुबतीवराई, केशववराई और बगड़वराई के नाम मिलते हैं।
नाथपंथी संत नारसिंह की प्रेरणा से आसन्तिदेव ने अपनी राजधानी जोशीमठ से हटाकर कत्यूर घाटी के रणचूलाकोट में स्थापित की। इसके बाद यह क्षेत्र इस वंश का प्रमुख केंद्र बन गया।
आसन्तिदेव के बाद क्रमशः जिन शासकों ने इस वंश की गद्दी संभाली, वे थे:
वासंजीराई, गोराराई, सांवळाराई, इलयणदेव, तीलणदेव, प्रीतमदेव, धामदेव और ब्रह्मदेव।
इस वंश का अंतिम शासक ब्रह्मदेव था, जिसे स्थानीय लोकगाथाओं और जागरों में ‘बीरमदेव’ कहा गया है। वह अत्यंत क्रूर और अत्याचारी शासक माना गया है।
राजवंश के पतन की घटनाएँ:
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सन् 1191 ई. में अशोकचल्ल ने कत्यूरी राज्य पर आक्रमण कर कुछ भागों पर अधिकार कर लिया।
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सन् 1223 ई. में नेपाल के दुलू के शासक क्राचल्लदेव ने भी कुमाऊं क्षेत्र पर आक्रमण कर कत्यूरी साम्राज्य को अपने नियंत्रण में ले लिया।
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जियारानी की एक प्रसिद्ध लोकगाथा के अनुसार सन् 1398 ई. में जब तैमूर लंग ने हरिद्वार पर आक्रमण किया, तब उसका सामना ब्रह्मदेव से हुआ। इसी युद्ध के साथ आसन्तिदेव वंश का अंत हो गया।
🔶 नोट: कत्यूरी वंश का स्वर्णकाल शासक धामदेव के शासनकाल को माना जाता है।
कत्यूरी युग में एक प्रसिद्ध नृत्यांगना का उल्लेख भी मिलता है जिसका नाम था – छमुना पातर।
कत्यूरी काल के प्रमुख पदाधिकारी (Officers of Katyuri Period)
पदनाम | कार्य / भूमिका |
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राजात्मय | राज्य का सर्वोच्च सलाहकार, जो राजा को समय-समय पर मार्गदर्शन प्रदान करता था। |
महासामन्त | सेना का प्रमुख, युद्ध और सैन्य कार्यों का संचालन करता था। |
महाकरतृतिका | निरीक्षण एवं प्रशासनिक कार्यों की देखरेख करने वाला अधिकारी (मुख्य ओवरसियर)। |
उदाधिला | आधुनिक सुपरिटेंडेंट के समकक्ष पद, प्रशासनिक निरीक्षण का कार्य करता था। |
सौदाभंगाधिकृत | राज्य का मुख्य आर्किटेक्ट, जो निर्माण कार्यों की योजना बनाता था। |
प्रान्तपाल | सीमाओं का रक्षक, जो राज्य की बाहरी सीमाओं की सुरक्षा का उत्तरदायी था। |
वर्मपाल | सीमावर्ती क्षेत्रों की निगरानी और आवागमन पर कड़ी नजर रखने वाला अधिकारी। |
घट्पाल | पर्वतीय प्रवेशद्वारों की रक्षा के लिए नियुक्त विशेष अधिकारी। |
नरपति | नदी घाटों पर आवागमन सुगम बनाना और संदिग्ध व्यक्तियों की जांच करना इसका कार्य। |
गोप्ता | रक्षक या सुरक्षा अधिकारी। |
अक्षपटलिक | लेखा परीक्षा करने वाला अधिकारी (ऑडिटर)। |
महा दंडनायक | प्रधान सेनापति, जो समस्त सैन्य व्यवस्था का नेतृत्व करता था। |
कत्यूरी कालीन प्रशासनिक शब्दावली
शब्द | अर्थ / उपयोग |
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पल्लिका | गांव (ग्राम को पल्लिका कहा जाता था)। |
महत्तम | ग्राम शासक (गांव के प्रशासन का प्रमुख)। |
कुलचारिक | तहसीलदार (क्षेत्रीय राजस्व अधिकारी)। |
कत्यूरी सेना का विभाजन (Division of Katyuri Army)
कत्यूरी शासनकाल में सेना को चार मुख्य भागों में विभाजित किया गया था:
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पदातिक (पैदल सेना) – इस दल का नेतृत्व गौलमिक करता था। यह सैनिक टुकड़ी राजा की रक्षा और भूमि की सुरक्षा हेतु नियुक्त होती थी।
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अश्वारोही (घुड़सवार सेना) – इस दल का प्रमुख अश्वबलाधिकृत कहलाता था। यह भाग शत्रुओं पर तेजी से हमला करने और संदेशवाहन में माहिर था।
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गजारोही (हाथी सवार सेना) – इस टुकड़ी का नेतृत्व हस्तिबलाधिकृत करता था। हाथी युद्ध में मुख्य रूप से दुश्मन की कतारों को तोड़ने के लिए प्रयोग में लाए जाते थे।
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ऊष्ट्रारोही (ऊँट सवार सेना) – इस दल का प्रमुख ऊष्ट्राबलाधिकृत था। ऊँटों का उपयोग लंबी दूरी के अभियानों और रेगिस्तानी या कठिन रास्तों के लिए किया जाता था।
कत्यूरी कालीन पुलिस व्यवस्था (Police System of Katyuri Era)
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राज्य की सुरक्षा और जनसम्पत्ति की रक्षा हेतु दाण्डिक और खड्गिक सिपाही नियुक्त थे। ये खड्गधारी सैनिक जनता की रक्षा के लिए तत्पर रहते थे।
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अपराधियों को पकड़ने के लिए सर्वोच्च अधिकारी को दोषापराधिक कहा जाता था।
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गुप्तचरों की निगरानी और व्यवस्था दुःसाध्यसाधनिक नामक उच्च अधिकारी के अंतर्गत आती थी।
कत्यूरी शासन में आय के साधन (Sources of Revenue in Katyuri Rule)
कत्यूरी शासन काल में राज्य की आमदनी मुख्यतः तीन स्रोतों से होती थी:
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कृषि – भूमि की नाप और कृषि की देखभाल का कार्य क्षेत्रपाल करता था।
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खनिज संपदा – खनिज और वनों की देखरेख खण्डपति और खण्डरक्षास्थानाधिपति के अधीन थी।
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वन उत्पाद – वनों से प्राप्त लकड़ी, औषधि, और अन्य साधनों से राज्य को आय होती थी।
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भूमि के अभिलेखों को पट्टकोषचारिक नामक अधिकारी बनाए रखता था।
कत्यूरी शासन काल के कर (Taxes in Katyuri Period)
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कर वसूलने का कार्य भोगपति और शौल्किक अधिकारियों द्वारा किया जाता था।
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भट और चार-प्रचार नामक अधिकारी बेगार (अनिवार्य श्रम सेवा) प्रजा से लेते थे।
नोट: डोटी वंश के छोटे राजकुमारों को रैंका कहा जाता था।
कत्यूरी शासन में प्रांतों का प्रशासन (Provincial Administration in Katyuri Rule)
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कत्यूरी राज्य को अनेक प्रांतों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक प्रांत का शासन उपरिक (राज्यपाल) के हाथ में होता था।
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उपरिक के अधीन आयुक्तक प्रांत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन संचालन करते थे।
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प्रत्येक प्रांत को विषय कहा जाता था, और उसका सर्वोच्च अधिकारी विषयपति कहलाता था।
ज्ञात प्रमुख विषय:
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कार्तिकेयपुर विषय – जोशीमठ से गोमती उपत्यका तक का क्षेत्र।
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टंकणपुर विषय – अलकनंदा और भागीरथी के संगम से ऊपर का क्षेत्र।
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अन्तराग विषय – भागीरथी-अलकनंदा की मध्यवर्ती उपत्यका।
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एशाल विषय – भागीरथी और यमुना के बीच का क्षेत्र।
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मायापुरहाट – हरिद्वार के निकटवर्ती भाभर क्षेत्र।
जानें टिहरी रियासत का इतिहास (1815-1949 ई०)
कत्यूरी शासन में पशुधन और दुग्ध उत्पादन
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आभीर नामक व्यक्ति दुग्ध देने वाले पशुओं से दूध आदि प्राप्त करता था।
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कत्यूरी अभिलेखों से ज्ञात होता है कि राजपरिवार के पास गाय, भैंस, घोड़े और खच्चर जैसे पशु होते थे।
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इन पशुओं की देखरेख का कार्य किशोर-बडचा-गो-मजिहष्यधिकृत नामक अधिकारी करता था।
कत्यूरी कालीन मापन व्यवस्था (Measurement System in Katyuri Era)
कत्यूरी शासनकाल में भूमि मापन के लिए कई पारंपरिक इकाइयों का प्रयोग होता था, जिनमें मुख्य रूप से द्रोण और नाली का उल्लेख मिलता है।
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नाली: बीज बोने की भूमि को मापने के लिए प्रयोग होती थी। एक नाली को 1 पाथा = 2 सेर के हिसाब से मापा जाता था।
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द्रोण: बीज की मात्रा को मापने की एक प्रमुख इकाई थी। एक द्रोण सामान्यतः 32 सेर के बराबर माना जाता था।
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वाप: यह शब्द बीज की मात्रा को दर्शाने के लिए प्रयोग होता था। एक द्रोणवाप = 3840 वर्ग गज (ब्रिटिश कालीन मानक के अनुसार)।
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कुलय: गुप्तकाल में यह मापन इकाई अधिक उपयोग में थी। एक कुलय = 8 द्रोण = 256 सेर बीज, जो कि 30720 वर्ग गज भूमि के बराबर होता था।
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खारि: इसे 20 द्रोण के बराबर माना जाता था। इसमें 640 सेर बीज बोया जा सकता था और इसका क्षेत्रफल 76800 वर्ग गज होता था।
कत्यूरी स्थापत्य कला (Katyuri Architecture)
कत्यूरी काल में उत्तराखंड की स्थापत्य कला अपने उत्कर्ष पर थी। इस युग को उत्तराखंड की वास्तु एवं मूर्तिकला का स्वर्णकाल कहा जाता है।
प्रमुख विशेषताएँ:
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नागर शैली का प्रभाव: मंदिरों में उत्तर भारतीय नागर शैली की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।
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निर्माण सामग्री: मंदिर निर्माण में काष्ठ (लकड़ी) और पाषाण (पत्थर) दोनों का उपयोग होता था।
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मंदिर के प्रकार:
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छत्रयुक्त मंदिर: इन मंदिरों के शीर्ष पर लकड़ी से बना छत्र होता था, जो आमलका को ढकता था।
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उदाहरण: बागनाथ (बागेश्वर), गोपीनाथ (गोपेश्वर), केदारनाथ, रणीहाट, नंदा देवी मंदिर (अल्मोड़ा) आदि।
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शिखरयुक्त मंदिर: ऊँचे शिखर वाले ये मंदिर अद्भुत सौंदर्य से भरपूर होते थे।
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उदाहरण: बैजनाथ, जागेश्वर, कटारमल, द्वाराहाट, आदिबद्री आदि।
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स्थानीय पत्थरों का उपयोग: मंदिरों के निर्माण में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पत्थरों का ही प्रयोग किया जाता था।
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मध्यम आकार के मंदिर: अधिकतर मंदिर छोटे से मध्यम आकार के होते थे, जिनमें एक या दो मंडप होते थे।
विशिष्ट मंदिर:
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गूजर देव मंदिर, द्वाराहाट – अपनी स्थापत्य शैली और शिल्प सौंदर्य के कारण इसे अनुपम मंदिर माना गया है।
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हर-गौरी मंदिर, कालीमठ – प्रसिद्ध विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने यहाँ की मूर्ति को देखकर कहा था:
“आज पूरे भारतवर्ष में इतनी सुंदर अखण्ड मूर्ति और कहीं नहीं है।“
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