
यह लेख अत्यंत दुःख और मार्मिकता के साथ लिख रहा हूँ। मगर पत्रकारिता का दायित्व केवल ताज़ा खबरें देना नहीं होता, बल्कि समाज और संस्कृति के बदलते रुख को भी उजागर करना होता है। यही सोच हमें आज इस विषय पर लिखने को बाध्य कर रही है — “क्या हमारी सांस्कृतिक पहचान धीरे-धीरे खो रही है?”
चारधाम यात्रा अपने चरम पर है। देशभर से श्रद्धालु केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री समेत उत्तराखंड के कोने-कोने में दर्शन के लिए आ रहे हैं। हमारे पहाड़, हमारी संस्कृति, देवभूमि की आस्था, इन सबकी दिव्यता को महसूस कर रहे हैं।
इसी क्रम में बीते रविवार मेरा जाना हुआ एक पवित्र स्थान — त्रियुगी नारायण मंदिर, वही जगह जहाँ भगवान शिव और माता पार्वती का दिव्य विवाह संपन्न हुआ था। यह वह स्थान है जहाँ आज भी विवाह की वेदी की अग्नि प्रज्वलित है। लोग मानते हैं कि इस अग्नि में तीन युगों की तपिश है — और उसी से यह स्थान त्रियुगी नारायण कहलाया।
यहाँ ब्रह्म कुंड, रुद्र कुंड और सरस्वती कुंड जैसे पावन जल स्रोत हैं, जो हमारी आध्यात्मिक विरासत की पहचान हैं। अब यहाँ विवाह करने की परंपरा चल निकली है। दूर-दूर से लोग यहाँ विवाह के लिए आते हैं — कुछ पहली बार, कुछ प्रतीकात्मक रूप से दोबारा। इस नयी परंपरा से स्थानीय पंडितों और कर्मकांडियों को रोज़गार मिल रहा है, जो एक सकारात्मक संकेत है।
मगर जो चुभता है — वो है हमारे सांस्कृतिक मूलों का धीरे-धीरे ओझल हो जाना।
त्रियुगी नारायण जैसे स्थानों पर, जहाँ शिव-पार्वती का विवाह हुआ हो, वहाँ ढोल दमाऊं की गूंज सुनाई नहीं देती। कभी जो हमारे अनुष्ठानों की आत्मा हुआ करते थे, वे वाद्य आज सिर्फ रस्म अदायगी तक सीमित रह गए हैं।
ढोल-दमाऊं सिर्फ वाद्य नहीं हैं। ये उत्तराखंड की आत्मा की पुकार हैं। हर विवाह, यज्ञ, पूजा, देवता आवाहन, और पर्व-त्योहार में ये अनिवार्य रहे हैं। किंवदंतियों में भी उल्लेख है कि शिव ने खुद इन वाद्यों की रचना की थी। फिर क्या कारण है कि हमारे पवित्र धामों में इनकी थाप सुनाई नहीं देती?
आज त्रियुगी नारायण में विवाह हो रहे हैं — मगर बिना ढोल की थाप के। मंदिरों में आरती हो रही है — मगर बिना दमाऊं की आवाज़ के। क्या यह सिर्फ आधुनिकता है या फिर हमारी लापरवाही?
क्या यह जिम्मेदारी सिर्फ कलाकारों की है? बिलकुल नहीं। यह जिम्मेदारी है —
- मंदिर समिति की, जो आयोजन कराती है
- संस्कृति विभाग की, जो सांस्कृतिक संरक्षण का दावा करता है
- और समाज की, जो इन्हें सिर्फ दिखावे का हिस्सा बनाकर आगे बढ़ता जा रहा है
जब हर विवाह में लकड़ी से लेकर फूल और पुजारियों के शुल्क तय होते हैं, तो ढोल-दमाऊं वादकों के लिए मानदेय क्यों नहीं तय होता? क्या वे इस संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं?
हर मंदिर में CCTV, LED स्क्रीन, पंडाल, फ्लॉवर डेकोरेशन, हेलीपैड की बातें हो रही हैं — मगर जो सबसे बुनियादी सांस्कृतिक तत्व है, उसकी सुध कौन ले रहा है?
हमारा उत्तराखंड केवल देवभूमि नहीं, संगीतभूमि भी रहा है। यहाँ हर देवता की अपनी ढोल वाणी है। आज ज़रूरत है इस वाणी को पुनर्जीवित करने की।
समाप्ति से पहले एक सवाल:
क्या हम सिर्फ मंदिरों को पर्यटन केंद्र बनाना चाहते हैं या फिर उन्हें संस्कृति के जीते-जागते केंद्र बनाए रखना चाहते हैं?
उत्तराखंड के इस बदलते समाज को नई पहचान देने के साथ-साथ, पुरानी आत्मा को बचाए रखना भी उतना ही ज़रूरी है।
(दीपक बिष्ट)
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