
Satinder Sartaaj: डॉ. सतिंदर सरताज की जीवन-कथा- मिट्टी, मौन और संगीत से बना एक असाधारण सफ़र
Satinder Sartaaj: पंजाब की धरती पर कुछ आवाज़ें ऐसी पैदा होती हैं, जो शोर मचाने के लिए नहीं आतीं। वे धीरे-धीरे चलती हैं, ठहरती हैं, और फिर सुनने वाले के भीतर कहीं गहराई में बस जाती हैं। ऐसी आवाज़ें किसी ट्रेंड का हिस्सा नहीं बनतीं, बल्कि समय के पार चली जाती हैं। Satinder Sartaaj की आवाज़ भी उन्हीं में से एक है। यह लेख उसी आवाज़ की पूरी कहानी है- एक ऐसी कहानी जो सिर्फ़ एक गायक की नहीं, बल्कि एक साधक, एक विद्यार्थी, एक शिक्षक और एक ज़िम्मेदार इंसान की है।
यह कहानी खेतों से शुरू होती है, गुरुद्वारे की सीढ़ियों से होकर गुजरती है, विश्वविद्यालय के कमरों में तपती है और अंततः विश्व-मंच तक पहुँचती है। लेकिन वहाँ पहुँचकर भी यह कहानी खत्म नहीं होती, क्योंकि सरताज के लिए मंज़िल कभी अंत नहीं रही- वह हमेशा एक नई शुरुआत रही है।
दुआबा की धरती और जीवन का पहला पाठ
पंजाब के होशियारपुर ज़िले में स्थित एक छोटा-सा गांव- बजरावर। काग़ज़ों में इसका नाम कभी बजरौर लिखा गया, कभी कुछ और, लेकिन गांव की आत्मा वही रही। यह दुआबा क्षेत्र का हिस्सा है- सतलुज और ब्यास नदियों के बीच की धरती। इस इलाके की पहचान ही यही है कि यहाँ ज़मीन के टुकड़े छोटे हैं, लेकिन मेहनत और जिजीविषा बड़ी है। यहाँ के लोग बहुत जल्दी समझ जाते हैं कि खेती सब कुछ नहीं दे पाएगी, इसलिए शिक्षा ही असली पूँजी है।
इसी मिट्टी में सतिंदर सरताज का बचपन बीता। खेतों में काम, पशुओं के लिए चारा, बरसात के बाद पहाड़ों से बहकर आने वाला पानी- यह सब उनके जीवन का सामान्य हिस्सा था। लेकिन इस सामान्यता के भीतर भी एक असामान्य चीज़ थी- मौन। सरताज बचपन से ही कम बोलने वाले, ज़्यादा देखने और सुनने वाले थे। शायद यही आदत आगे चलकर उनकी सबसे बड़ी ताक़त बनी।
घर, संस्कार और गुरुद्वारे की शिक्षा
सरताज का परिवार साधारण था, लेकिन धार्मिक अनुशासन से भरा हुआ। सुबह और शाम गुरुद्वारे जाना, अरदास करना, गुरबाणी सुनना- यह कोई औपचारिकता नहीं थी, बल्कि जीवन की लय थी। घर में रेडियो भी तभी चलता था, जब अमृतसर से गुरबाणी का प्रसारण होता। उसके बाद रेडियो बंद कर दिया जाता था। यह शोर से दूरी और शब्दों की पवित्रता का पहला पाठ था।
उनकी दादी का प्रभाव उनके जीवन पर सबसे गहरा पड़ा। उन्होंने सिखाया कि शब्द हल्के नहीं होते। हर शब्द का एक वज़न होता है, एक इतिहास होता है। गुरुद्वारे में हुकमनामा पढ़ते समय उच्चारण की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता था। एक अक्षर भी अगर गलत बोला जाए, तो उसे ठीक कराया जाता था। इसी अभ्यास ने सरताज के भीतर भाषा के प्रति वह सम्मान पैदा किया, जो आगे चलकर उनके गीतों की आत्मा बना।
सपना: मंच नहीं, विद्या
आज जब लोग सरताज को बड़े मंचों पर देखते हैं, तो मान लेते हैं कि वे बचपन से ही गायक बनना चाहते थे। लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है। सरताज का सपना मंच का नहीं था। वे प्रोफेसर बनना चाहते थे। उन्हें विद्या से प्रेम था और शिक्षक बनने की आकांक्षा थी। उनके मन में एक ही इच्छा थी- अपने नाम के आगे “डॉ.” लिखना।
एम.ए. के पहले साल में ही उन्होंने काग़ज़ काटकर एक छोटी-सी नेम-प्लेट बनाई- “डॉ. सतिंदर।” उस समय न एम.फिल पूरी हुई थी, न पीएचडी शुरू हुई थी, लेकिन यह नेम-प्लेट उनके आत्मविश्वास का प्रतीक थी। यह एक वादा था, जो उन्होंने खुद से किया था- कि वे इस रास्ते को पूरा करेंगे, चाहे कितना ही समय क्यों न लगे।
संगीत से पहली मुलाक़ात
दसवीं की छुट्टियों में वे अपने ननिहाल गए। गांव की दोपहरें आमतौर पर शांत होती हैं- न कोई हलचल, न कोई शोर। उसी दोपहर उन्होंने एक घर से हारमोनियम की आवाज़ सुनी। उत्सुकता में उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया और अंदर गए। यह एक साधारण-सा क्षण था, लेकिन इसी क्षण ने उनके जीवन की दिशा बदल दी।
इसके बाद शुरू हुआ साइकिल का लंबा सफ़र- लुटेरा कला से जालंधर कैंट तक। प्राचीन कला केंद्र में संगीत की औपचारिक शिक्षा। वहाँ संगीत को मनोरंजन नहीं, अनुशासन की तरह सिखाया जाता था। रियाज़, सुर, लय- हर चीज़ के लिए समय और धैर्य चाहिए था। सरताज ने इस अनुशासन को स्वीकार किया, बिना यह सोचे कि इससे आगे क्या होगा।
शिक्षा, ज़िम्मेदारी और संघर्ष का संगम
ग्रेजुएशन म्यूज़िक ऑनर्स में हुआ। फिर एम.ए., फिर एम.फिल और अंततः पीएचडी। यह सफ़र आसान नहीं था। पढ़ाई के साथ-साथ घर की चिंता भी थी। माता-पिता ने बड़ी मुश्किल से पैसे जोड़कर उन्हें शहर भेजा था। सरताज जानते थे कि अब घर से पैसे मँगवाना सही नहीं है। उन्हें खुद अपने खर्च निकालने होंगे।
इसी ज़िम्मेदारी ने उन्हें भांगड़ा सिखाने के लिए प्रेरित किया। चंडीगढ़ के सेक्टर 14, 15 और 38 में छोटे-छोटे पोस्टर लगाए गए- “भांगड़ा सीखें।” शाम को ढोल, दिन में पढ़ाई और रात में रियाज़- यही उनका दैनिक जीवन बन गया। उस समय गाना उनकी प्राथमिकता नहीं था। भांगड़ा पहले था, गायन बाद में।
दुबई: आत्मविश्वास की पहली चिंगारी
भांगड़ा टीम के साथ दुबई जाना उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। एक सांस्कृतिक उत्सव में उन्होंने भांगड़ा प्रस्तुत किया और इनाम भी जीता। वहीं किसी ने उनसे कहा- “तू गाता भी है, गा के दिखा।” यह एक साधारण-सा वाक्य था, लेकिन इसके भीतर एक नया रास्ता छिपा हुआ था।
उन्होंने नुसरत फ़तेह अली ख़ान का कलाम गाया- “सानू एक पल चैन ना आवे।” यह सिर्फ़ एक गीत नहीं था। यह अपने आप से किया गया पहला सवाल था- क्या यह आवाज़ आगे जा सकती है? इनाम मिला, लेकिन उससे ज़्यादा मिला आत्मविश्वास। उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा है, जो लोगों को छू सकता है।
प्रतियोगिताएँ, पहचान और बढ़ता डर
दुबई के बाद दिल्ली और चंडीगढ़ में कई प्रतियोगिताएँ हुईं। नेशनल लेवल पर पहला पुरस्कार भी मिला। पहचान बढ़ने लगी। लेकिन इसके साथ ही डर भी बढ़ने लगा। अब वे जानते थे कि यह रास्ता सिर्फ़ सुरों का नहीं, ज़िम्मेदारी का भी है। वे अब यूँ ही नहीं गा सकते थे। हर शब्द, हर सुर का वज़न बढ़ गया था।
यह डर नकारात्मक नहीं था। यह डर उन्हें और सतर्क बनाता था, और ज़्यादा मेहनत करने के लिए प्रेरित करता था।
हॉस्टल नंबर 143: तन्हाई की प्रयोगशाला
पंजाब यूनिवर्सिटी का हॉस्टल- कमरा नंबर 143। लगभग आठ साल। यही वह जगह थी, जहाँ सरताज ने खुद को सबसे ज़्यादा समझा। यहीं उन्होंने पढ़ाया, यहीं उन्होंने लिखा और यहीं उन्होंने चुप रहना सीखा।
जब हॉस्टल छोड़ा और किराए के घर में रहने लगे, तो सबसे बड़ी समस्या बनी- खाना। उन्होंने खुद को एक सख़्त नियम दिया: जब तक गीत नहीं बनेगा, खाना नहीं। इस नियम का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने लगभग डेढ़ साल तक नाश्ता नहीं किया। यह कोई दिखावा नहीं था। यह एक कठोर आत्म-अनुशासन था।
इसी भूख, इसी थकान और इसी अकेलेपन में वह गीत पैदा हुआ, जिसे आज दुनिया “साईं” के नाम से जानती है। यह गीत लिखा नहीं गया था- यह एक दुआ थी, जो सीधे दिल से निकली थी।
नज़्मगाह: रचनात्मकता का छोटा संसार
घर के पीछे एक छोटा-सा कमरा- आठ बाई आठ। सरताज ने इसका नाम रखा- “नज़्मगाह।” एक गद्दा, एक हारमोनियम और कुछ किताबें। यही उनकी दुनिया थी। कोविड के समय, जब दुनिया थम गई थी, सरताज की रचनात्मकता सबसे ज़्यादा सक्रिय हुई। उन्होंने लगभग 200 अफ़साने लिखे और रोज़ चार-पाँच गीत रचे।
यह अकेलापन नहीं था। यह सृजन का सबसे उपजाऊ समय था। नज़्मगाह उनके लिए एक साधना-स्थल बन गया।
भाषा: सजावट नहीं, आत्मा
सरताज के गीतों की सबसे बड़ी ख़ासियत उनकी भाषा है। फारसी और उर्दू उन्होंने सिर्फ़ पढ़ी नहीं, बल्कि गहराई से समझी। वे मानते हैं कि सुफ़ियाना संगीत बिना भाषा की समझ के अधूरा है। उच्चारण, अर्थ और तहज़ीब- हर शब्द को उसका पूरा हक़ मिलना चाहिए।
यही वजह है कि उनके गीत सुनते समय ऐसा लगता है जैसे शब्द गाए नहीं जा रहे, बल्कि जिए जा रहे हों।
विश्व-मंच और वही पुरानी सादगी
आज सरताज दुनिया भर में गाते हैं- अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया। 16 घंटे की उड़ान, सीधे इंटरव्यू, फिर मंच। लेकिन उनके भीतर वही इंसान है, जिसने खेतों में पसीना बहाया है। इसलिए उन्हें कोई काम छोटा नहीं लगता। मज़दूर के पास बैठ जाना, धूप में खड़ा रहना- यह सब उनकी फितरत का हिस्सा है।
सतिंदर सरताज क्यों अलग हैं?
वे सिर्फ़ गायक नहीं हैं।
वे शब्दों के साधक हैं।
वे भाषा के संरक्षक हैं।
वे उस पंजाब की आवाज़ हैं, जहाँ शोर से ज़्यादा ठहराव की क़ीमत है।
उनके गीत सुनकर लोग रोते नहीं- हल्के हो जाते हैं।
एक आवाज़, जो समय से आगे है
डॉ. सतिंदर सरताज की जीवन-कथा हमें यह सिखाती है कि सच्ची कला जल्दी नहीं बनती। वह समय, तपस्या और ईमानदारी माँगती है। खेतों से लेकर विश्व-मंच तक का उनका सफ़र इस बात का प्रमाण है कि अगर शब्द सच्चे हों, तो आवाज़ खुद रास्ता बना लेती है।
यही वजह है कि सतिंदर सरताज सिर्फ़ सुने नहीं जाते- महसूस किए जाते हैं।