
Panwar and Parmar Dynasty in Uttarakhand in Hindi: जानें उत्तराखंड के पंवार या परमार वंश के शासकों के बारें में
Panwar and Parmar Dynasty in Uttarakhand in Hindi: 9वीं शताब्दी तक गढ़वाल क्षेत्र में कुल 52 गढ़ (किले) स्थापित हो चुके थे। इन सभी गढ़ों पर स्थानीय खश ठकुरियों का शासन था। इसी कारण गढ़वाल को “गढ़देश” या “बावन गढ़ों का देश” कहा जाने लगा। ये गढ़ छोटे-छोटे दुर्गों के रूप में विकसित हुए थे।
इन गढ़ों में सबसे महत्वपूर्ण गढ़ था चांदपुर गढ़, जिसकी स्थापना भानुप्रताप ने की थी। वह भगवान विष्णु का उपासक था। गढ़वाल का सबसे पहला गढ़ नागपुर गढ़ था, जबकि आखिरी और 52वां गढ़ लोधनगढ़ था।
आज के समय में चांदपुर गढ़ (चमोली) ही वह एकमात्र बचा हुआ ऐतिहासिक गढ़ है।
गढ़वाल की राजधानियाँ
-
प्रथम राजधानी: चांदपुरगढ़ (स्थापना – 888 ई.)
-
द्वितीय राजधानी: देवलगढ़ (1512 ई.)
-
तृतीय राजधानी: श्रीनगर (1517 ई.)
-
चतुर्थ और अंतिम राजधानी: टिहरी (1815 ई.)
पंवार वंश की राजभाषा गढ़वाली थी।
पंवार वंश की उत्पत्ति: एक विवाद
पंवार वंश के संस्थापक को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं:
स्रोत | संस्थापक का नाम |
---|---|
बिकेट और विलियम्स की वंशावली | कनकपाल |
अल्मोड़ा की वंशावली | भगवानपाल |
मौलाराम की वंशावली | भौनापाल |
हार्डविक की वंशावली | भोगदत्त |
हालांकि, अधिकांश आधुनिक इतिहासकार कनकपाल को ही पंवार वंश का प्रथम शासक मानते हैं।
सुदर्शन शाह ने औपचारिक रूप से अपने वंश को “पंवार वंश” नाम दिया था।
पंवार वंश के प्रमुख शासक और उनके शासनकाल
क्र.सं. | शासक | शासनकाल (ई.) |
---|---|---|
1 | कनकपाल | 888–899 |
2 | श्यामपाल | 899–924 |
3 | पाण्डुपाल | — |
24 | सोनपाल | 1209–1216 |
34 | जगतपाल | 1442–1460 |
37 | अजयपाल | 1493–1547 (गढ़वाल का एकीकरण करने वाला) |
43 | बलभद्र शाह | 1580–1591 |
44 | मानशाह | 1591–1611 |
45 | श्यामशाह | 1611–1624 |
46 | महिपतिशाह | 1624–1631 |
47 | पृथ्वीपति शाह | 1635–1667 |
48 | मेदिनीशाह | — |
49 | फतेहपति शाह | 1667–1716 |
50 | उपेन्द्रशाह (दलीप शाह) | 1716–1717 |
51 | प्रदीपशाह | 1717–1772 |
52 | ललितशाह | 1772–1780 |
53 | जयकृतशाह | 1780–1785 |
54 | प्रद्युम्न शाह | 1785–1804 (गोरखा आक्रमण में वीरगति) |
55 | सुदर्शन शाह | 1815–1859 (टिहरी की राजधानी स्थापना) |
56 | भवानी शाह | 1859–1871 |
57 | प्रताप शाह | 1871–1886 |
58 | कीर्ति शाह | 1886–1913 |
59 | नरेन्द्र शाह | 1913–1946 |
60 | मानवेन्द्र शाह | 1946–1949 (अंतिम राजा; भारत में विलय) |
गढ़ों से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य
-
18वां गढ़: चांदपुरगढ़
-
13वां गढ़: उप्पूगढ़
-
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा 2004 में चांदपुरगढ़ का उत्खनन किया गया।
-
चांदपुरगढ़ की बनावट चक्रव्यूह जैसी थी, जिसे दुश्मनों द्वारा भेद पाना अत्यंत कठिन था।
कनकपाल (Kanakpal) – शासनकाल: 888–899 ई.
कनकपाल परमार वंश का संस्थापक और आदि पुरुष माना जाता है। वह गुर्जर प्रदेश या धारा नगरी (वर्तमान मध्यप्रदेश या गुजरात) से पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा पर आया था। यात्रा के दौरान वह चांदपुर गढ़ के शासक भानुप्रताप के राज्य से होकर गुजरा।
भानुप्रताप कनकपाल की प्रतिभा और व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपनी पुत्री सुचित्रवीणा (या चित्रवीणा) का विवाह कनकपाल से कर दिया और साथ ही दहेज में चांदपुर परगना भी सौंप दिया। इस प्रकार, 888 ई. में कनकपाल ने चांदपुर गढ़ में परमार (या पंवार) वंश की नींव रखी।
कनकपाल के गढ़ को “कौनपुरगढ़” या “चांदपुरगढ़” कहा जाता था। प्रसिद्ध कवि देवराय ने गढ़वाल राजवंशावली में कनकपाल का वर्णन करते हुए उन्हें “स्वर्णपाल” भी कहा है। उनका गोत्र शौनक बताया गया है।
सोनपाल (Sonpal/Suvarnapal) – शासनकाल: 1243–1250 ई.
सोनपाल परमार वंश के 24वें शासक थे। उन्होंने अपनी राजधानी भिलंगना घाटी में स्थापित की थी। परंतु, बाद में आसल देव नामक शासक ने राजधानी को पुनः चांदपुरगढ़ में स्थानांतरित किया।
लखनदेव / लषणदेव (Lakhandev/Lashandev) – शासनकाल: 1310–1330 ई.
लखनदेव वंश के 28वें राजा थे। वह पंवार वंश का प्रथम शासक था जिसने अपने नाम की तांबे की स्वमुद्रा जारी की। इस मुद्रा पर नागरी लिपि में “लषणदेव” अंकित पाया गया है। यह ऐतिहासिक मुद्रा टिहरी स्थित पुराने दरबार संग्रहालय से प्राप्त हुई है।
अनंतपाल द्वितीय (Anantapal II) – शासनकाल: 1333–1354 ई.
अनंतपाल द्वितीय परमार वंश के 29वें शासक थे। उनके शासनकाल का एक शिलालेख 1335 ई. का है, जो मंदाकिनी घाटी के ऊखीमठ क्षेत्र स्थित धारशिल से प्राप्त हुआ है। इस शिलालेख में उनका एक अन्य नाम “मुकुंददेव” भी उल्लिखित है।
यह शिलालेख गढ़वाल का अब तक ज्ञात सबसे प्राचीन अभिलेख माना जाता है।
जगतपाल (1442–1460 ई.)
राजा जगतपाल गढ़वाल के परमार वंश के 34वें शासक थे। उनका कालखंड विशेष रूप से 1455 ई. के एक ताम्रपत्र से जाना जाता है, जो रघुनाथ मंदिर, देवप्रयाग से प्राप्त हुआ है। इस ताम्रपत्र में जगतपाल को “रजबार” अर्थात प्रभुत्वसंपन्न शासक बताया गया है।
इस ताम्रपत्र में देवप्रयाग के वैष्णव मंदिरों की पूजा व्यवस्था के लिए भूमि दान का उल्लेख है। यह परमार वंश का सबसे प्राचीन भूमिदान प्रमाण भी माना जाता है।
अजयपाल (1490–1519 ई.)
राजा अजयपाल परमार वंश के 37वें और सबसे प्रभावशाली शासकों में से एक थे। उन्होंने 1515 ई. में गढ़वाल के 52 गढ़ों को एकत्र कर एकीकृत राज्य की स्थापना की और उसे “गढ़वाल” नाम दिया। इस कारण उन्हें “गढ़वाल का बिस्मार्क”, “गढ़ोवाला”, “गढ़वाल का नेपोलियन” और “गढ़वाल का कृष्ण या भीम” कहा गया।
राजनीतिक उपलब्धियाँ:
-
राजधानी पहले 1512 में देवलगढ़ और फिर 1517 में श्रीनगर स्थानांतरित की।
-
श्रीनगर को उत्तराखंड की दिल्ली कहा जाता है। वर्तमान श्रीनगर की स्थापना 1895 में अंग्रेज़ पौ द्वारा की गई थी।
-
अजयपाल को पंवार वंश का वास्तविक संस्थापक भी माना गया है।
-
उन्होंने गढ़वाल की सीमाओं का निर्धारण कर ‘ओढ़ा’ लगाया।
धार्मिक एवं सांस्कृतिक योगदान:
-
अजयपाल गोरखनाथ सम्प्रदाय के अनुयायी बन गए, जिससे उन्हें “गढ़वाल का अशोक” कहा जाता है (प्रो. अजय सिंह रावत द्वारा)।
-
गोरखनाथ पंथ की स्थापना गढ़वाल में अजयपाल ने ही की थी।
-
उनके गुरु सत्यनाथ भैरव थे जिन्हें भैरव का अवतार माना गया। जॉर्ज डब्लू विग्स ने अपने ग्रंथ “Gorakhnath and the Kanphata Yogis” में उनका उल्लेख किया है।
सैन्य विजय एवं संघर्ष:
-
उन्होंने उप्पूगढ़ (टिहरी) के प्रसिद्ध योद्धा कफ्फू चौहान को पराजित किया, जिसे “गढ़वाल का महाराणा प्रताप” कहा जाता है।
-
कंडारीगढ़ (रुद्रप्रयाग) के नरवीर सिंह कंडारी ने अजयपाल के भय से मंदाकिनी नदी में आत्महत्या कर ली थी।
-
उन्होंने कत्यूरी शासकों से स्वर्ण सिंहासन भी छीना।
-
चंद वंश के राजा कीर्तिचंद ने गढ़वाल पर आक्रमण कर अजयपाल को हराया, परंतु बाद में अजयपाल ने उन्हें पांडुवानौला में तप कर पराजित किया।
धार्मिक निर्माण कार्य:
-
देवलगढ़ में राजराजेश्वरी देवी मंदिर, भैरव मंदिर, और गौरजा मंदिर का निर्माण।
-
श्रीनगर में कालिंका मठ और राजमहल का निर्माण, जो 1803 के भूकंप व 1894 की बाढ़ में नष्ट हो गया।
-
देवलगढ़ में सिद्धासन मुद्रा में उनका चित्र विष्णु मंदिर की दीवार पर मौजूद है।
प्रशासनिक सुधार:
-
राज्य को मंडलों और परगनों में विभाजित किया।
-
भूमि माप की “पाथा” प्रणाली लागू की, जिसे “अजयपाल का धर्म पाथो” कहा गया।
-
सरोल ब्राह्मणों की नियुक्ति की, जिनके बनाए भात को शुद्ध माना गया।
साहित्यिक साक्ष्य:
-
कवि भरत द्वारा रचित “मानोदय काव्य” में अजयपाल की तुलना कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, कुबेर और इन्द्र से की गई है।
-
इस ग्रंथ में उन्हें “अपने नाम से ही शत्रुओं के मन को तोड़ने वाला” बताया गया है।
-
“मानोदय काव्य” पंवार वंश का सबसे प्राचीन ऐतिहासिक काव्य माना जाता है।
निजी जीवन:
-
उनके पुत्र का नाम बलराम था, जिससे उन्हें अत्यधिक स्नेह था।
-
उनकी कुल देवी राजराजेश्वरी देवी थीं, जिनकी प्रतिष्ठा उन्होंने देवलगढ़ में करवाई।
अंतिम तथ्य:
-
अजयपाल का एक अन्य नाम पूर्वा देव भी था।
कल्याणशाह (Kalyanshah)
अजयपाल के उत्तराधिकारी के रूप में कल्याणशाह गढ़वाल के शासक बने।
पंवार वंश में सबसे पहले ‘शाह’ की उपाधि धारण करने वाले राजा कल्याणशाह ही थे।
विजयपाल (Vijaypal)
विजयपाल वह प्रथम परमार शासक थे जिन्होंने भोट (तिब्बत) पर सैन्य अभियान चलाया।
हालांकि, हर्षदेव जोशी के अनुसार यह अभियान असफल रहा।
सहजपाल (Sahajpal) (1547–1575 ई.)
सहजपाल पंवार वंश के 42वें शासक थे।
उनसे संबंधित 5 अभिलेख देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर से प्राप्त हुए हैं:
-
पहला अभिलेख 1548 ई. का है, जो क्षेत्रपाल मंदिर के द्वार से मिला।
-
एक अन्य अभिलेख 1561 ई. का है, जो रघुनाथ मंदिर की एक घंटी पर खुदा हुआ है, जिसमें राजा सहजपाल का नाम अंकित है।
सहजपाल ने देवप्रयाग के वैष्णव मंदिरों की व्यवस्था एवं सुरक्षा में योगदान दिया।
वह हुमायूं और अकबर के समकालीन थे तथा चंद वंश के भीष्मचंद, बालोकल्याणचंद और रूद्रचंद के समकालीन माने जाते हैं।
अकबर ने गढ़वाल की भौगोलिक व सांस्कृतिक जानकारी के लिए एक खोजी दल भेजा था, जो गंगा के स्रोत की खोज हेतु था।
कवि भरत ने सहजपाल की प्रशंसा करते हुए उन्हें वीर, गुणज्ञ, दानी, चतुर राजनीतिज्ञ तथा विद्वानों का संरक्षक बताया है।
बलभद्रशाह (Balbhadrashah) (1575–1591 ई.)
सहजपाल के पश्चात गढ़वाल की सत्ता बलभद्रशाह के हाथ में आई।
इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे:
बलरामशाह, रामशाह, और बहादुरशाह।
‘अकबरनामा’ में इनका उल्लेख रामशाह के रूप में मिलता है।
बलभद्रशाह वह पहले शासक थे जिन्होंने धार्मिक रूप से भी ‘शाह’ की उपाधि को अपनाया।
कहा जाता है कि उन्हें यह ‘शाह’ की उपाधि बहलोल लोदी द्वारा दी गई थी।
यह शासक अपने पराक्रम और युद्धप्रियता के लिए प्रसिद्ध था।
कवि देवराज ने इनकी तुलना भीमसेन से की है।
बधाणगढ़ का युद्ध (1581 ई.)
-
बलभद्रशाह और कुमाऊँ के राजा रूद्रचंद के बीच यह युद्ध ग्वालदम (बधाणगढ़) में लड़ा गया।
-
एक मान्यता के अनुसार यह युद्ध 1590–91 ई. में भी हुआ था।
-
इस युद्ध में कुमाऊँ की सेना का सेनापति पुरूषपंत/पुरूखुपंत मारा गया था।
-
बलभद्रशाह की सहायता सुखलदेव मिश्रा नामक कत्यूरी शासक ने की थी।
शासन कार्य:
-
श्रीनगर में प्रस्तर निर्मित विशाल राजभवन का निर्माण कराया।
-
इन्हीं के शासनकाल में राजदूत भेजने की परंपरा का प्रारंभ हुआ।
-
बलभद्रशाह के पुत्र का नाम मानशाह था।
मानशाह (Maanshah) (1591–1611 ई.)
बलभद्रशाह के पश्चात गढ़वाल की गद्दी पर उनके पुत्र मानशाह विराजमान हुए। उनका शासनकाल संघर्षों और सैन्य सफलताओं से भरपूर था।
उत्तराखंड का इतिहास, एक पौराणिक और ऐतिहासिक यात्रा
कुमाऊँ के साथ संघर्ष
मानशाह के शासनकाल में कुमाऊँ के शासक लक्ष्मीचंद ने गढ़वाल पर 1597 से 1605 ई. के मध्य कुल आठ बार आक्रमण किए।
-
सातवाँ आक्रमण पैनोगढ़ (पयनदुर्ग) पर हुआ, जो असफल रहा। इस युद्ध का वर्णन मानोदयकाव्य में मिलता है।
-
आठवाँ आक्रमण 1605 ई. में हुआ, जिसमें गढ़वाल के वीर सेनापति खतड़ सिंह वीरगति को प्राप्त हुए और कुमाऊँ ने अस्थायी सफलता पाई।
गढ़वाल की सेना का नेतृत्व नंदी और भृंगी नामक सेनापतियों ने किया। नंदी ने कुमाऊँ की राजधानी तक पर अधिकार कर लिया था।
काव्य, साहित्य और खगोलविद्या
मानशाह के दरबार में कवि भरत नामक विद्वान उपस्थित थे, जो न केवल एक महान कवि थे बल्कि ख्याति प्राप्त ज्योतिषाचार्य भी थे।
-
कवि भरत ने संस्कृत में रचित ‘मानोदयकाव्य’ की रचना की, जो प्रथम गढ़वाली काव्य रचना मानी जाती है।
-
जहांगीर ने कवि भरत को ‘ज्योतिषराय’ की उपाधि से सम्मानित किया।
मानोदयकाव्य में मानशाह को इस प्रकार वर्णित किया गया है:
-
समुद्र की भाँति गंभीर
-
भीम के समान शौर्यवान
-
सूर्य के समान तेजस्वी
-
दानवीरता में राजा बलि और कर्ण से भी श्रेष्ठ
विदेशी यात्रियों का उल्लेख
ब्रिटिश यात्री विलियम फिंच ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधि के रूप में भारत आया और जहांगीर के दरबार के साथ-साथ मानशाह के दरबार में भी पहुँचा।
-
उसने मानशाह को अत्यंत धनाढ्य शासक बताया, जो सोने के बर्तनों में भोजन करते थे।
-
फोस्टर ने अपनी पुस्तक “अर्ली ट्रैवल्स इन इंडिया” में फिंच की यात्रा और मानशाह के विवरण का उल्लेख किया है।
तिब्बत पर विजय
मानशाह ने गद्दी संभालते ही तिब्बत के राजा काकवामार पर चढ़ाई की और विजय प्राप्त की।
-
वह तिब्बत से 1000 स्वर्ण कलश लेकर लौटा और इन्हें गौरीमठ में स्थापित किया।
-
वह तिब्बत पर सफल आक्रमण करने वाले प्रथम पंवार शासक माने जाते हैं।
(नोट: विजयपाल ने तिब्बत पर पहला प्रयास किया था लेकिन वह असफल रहा था।)
नगरों की स्थापना और उपाधियाँ
-
मानशाह ने अलकनंदा नदी के किनारे ‘मानपुर’ नामक नगर की स्थापना की, जो आज का श्रीनगर (गढ़वाल) है।
-
उन्हें ‘गढ़भंजन’ की उपाधि से नवाज़ा गया, अर्थात शत्रु दुर्गों को ध्वस्त करने वाला।
-
उन्होंने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।
समकालीन व्यक्तित्व
-
मानशाह के समकालीन लोकनायक जीतू बगडवाल थे।
-
मानशाह ने उन्हें भोट (तिब्बत) का फौजदार नियुक्त किया था।
पारिवारिक विवरण
मानशाह के दो पुत्र थे:
-
श्यामशाह
-
धामशाह
श्यामशाह (Shyamshah) (1611–1631 ई.)
मानशाह की मृत्यु के पश्चात् 1611 ई. में उनके पुत्र श्यामशाह गढ़वाल की गद्दी पर आसीन हुए। उनका शासनकाल गढ़वाल के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय माना जाता है। श्यामशाह चंद वंश के शासक लक्ष्मीचंद, दिलीपचंद, विजयचंद और त्रिमलचंद के समकालीन थे।
त्रिमलचंद को दी शरण
गढ़वाल में शरण लेने वाला पहला चंद शासक त्रिमलचंद था। 1621 ई. में उसकी श्यामशाह से भेंट हुई। श्यामशाह ने उसे न केवल शरण दी, बल्कि कुमाऊं का राजा भी नियुक्त कर दिया। यह घटना श्यामशाह की राजनीतिक सूझबूझ और उदारता का प्रमाण है।
तिब्बत पर आक्रमण
श्यामशाह ने तिब्बत के शासक काकवामोर पर आक्रमण किया, क्योंकि वह कर देने से इनकार कर रहा था। इस युद्ध में श्यामशाह ने उसे पराजित कर एक शेर के बराबर सोने का चूर्ण, चार सींग वाला मेंढ़ा और चंवर गाय कर रूप में देने को विवश किया। साथ ही काकवामोर का महल और एक तिब्बती गाँव जला दिया गया।
दक्षिण में सीमाएं विस्तारित
अपनी सैन्य सफलताओं के माध्यम से श्यामशाह ने दक्षिण में गढ़वाल राज्य की सीमा मंगलौर नगर तक विस्तारित की। यह उनका सामरिक कौशल दर्शाता है।
जहांगीर दरबार की भेंट
15 मार्च 1621 को श्यामशाह ने मुगल सम्राट जहांगीर से आगरा में भेंट की। इस अवसर पर जहांगीर ने उन्हें एक हाथी और एक घोड़ा भेंट स्वरूप प्रदान किया। श्यामशाह का उल्लेख मुगलकालीन प्रसिद्ध ग्रंथ “जहांगीरनामा” में भी मिलता है।
तिब्बत यात्रा और यूरोपीय संपर्क
1624 ई. में पुर्तगाली जेसुइट पादरी एनड्राडे गढ़वाल आया और श्रीनगर से होते हुए तिब्बत गया। उसने श्रीनगर में कुछ समय बिताया और छपराड़ मंडी में चर्च की स्थापना की। वह गढ़वाल आने वाला पहला ईसाई पादरी था। उसके साथ उसका मित्र मैनुअल मार्क्स भी था।
1631 में जब एनड्राडे पुनः पादरियों के एक दल के साथ तिब्बत यात्रा के लिए श्रीनगर पहुँचा, तो श्यामशाह का देहांत हो चुका था। उनकी 60 रानियाँ सती हो चुकी थीं और उनकी चिताएँ जल रही थीं।
अंतिम समय और मृत्यु
श्यामशाह की मृत्यु एक दुखद दुर्घटना में हुई। वह अलकनंदा नदी में नाव डूबने से मारे गए। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी 60 रानियों ने सती प्रथा का पालन करते हुए अपने प्राण त्याग दिए। यह घटना उस समय की सामाजिक व्यवस्था और परंपरा को दर्शाती है।
शासनकाल की उपलब्धियाँ और विशेषताएं
-
श्रीनगर में उन्होंने सामाशाही बागान बनवाया।
-
1625 ई. में केशोराय मठ का निर्माण उनके शासनकाल में महिपतिशाह द्वारा करवाया गया।
-
श्यामशाह ने सिलासारी गाँव का भूमिदान शिवनाथ जोगी को किया।
-
उनके काल में 1616 से 1624 तक प्लेग महामारी फैली रही, जिससे राज्य को आठ वर्षों तक जूझना पड़ा।
-
उनके गुरू शंकर थे, जिन्होंने वास्तुशिरोमणि की रचना की थी।
निजी जीवन और आलोचना
श्यामशाह एक विलासी शासक माने जाते हैं। उन्हें भोगविलास में अधिक रुचि थी और वे वेश्याओं के साथ समय बिताने में संकोच नहीं करते थे। इसी कारण इतिहासकारों ने उन्हें गढ़वाल का मोहम्मद बिन तुगलक भी कहा है — एक ऐसा शासक जो प्रतिभाशाली तो था, परंतु निर्णयों में अक्सर अस्थिर।
उत्तराधिकारी और परिवार
श्यामशाह निःसंतान थे। उनके बाद उनके चाचा महिपतिशाह ने गद्दी संभाली। श्यामशाह का भाई धामशाह था, जिसने उनके शासन में महत्वपूर्ण प्रशासनिक भूमिका निभाई थी।
महिपति शाह (Mahipati Shah) – गढ़वाल का गर्वभंजन नरेश (1632-1635 ई.)
श्यामशाह की मृत्यु के उपरांत वर्ष 1632 में महिपति शाह गढ़वाल की गद्दी पर आरूढ़ हुए। उनके पिता का नाम दुलाराम शाह था। इतिहास में महिपति शाह को ‘गर्वभंजन’ की उपाधि से भी जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने कई युद्धों में अपने शत्रुओं को पराजित कर गढ़वाल राज्य की गरिमा को सुदृढ़ किया।
उपाधियाँ और पराक्रम
-
गर्वभंजन – यह उपाधि उन्हें शत्रुओं के मान-मर्दन हेतु दी गई।
-
गर्भभंजक – यह उपाधि उनके वीर सेनापति माधोसिंह भण्डारी को दी गई।
-
गढ़भंजन – यह उपाधि पूर्ववर्ती राजा मानशाह से संबंधित थी।
सेनापति एवं युद्ध अभियान
महिपति शाह के तीन प्रमुख सेनानायक थे:
-
माधोसिंह भण्डारी – गर्भभंजक कहलाए; उन्होंने अपने पुत्र गजे सिंह का बलिदान दिया।
-
लोदी रिखोला – तिब्बत अभियान में मुख्य भूमिका निभाई।
-
बनवारी दास
इन सेनापतियों ने तिब्बत (भोट) पर कई आक्रमण किए। 1632 ई. में लोदी रिखोला के नेतृत्व में दापा दुर्ग पर आक्रमण कर उसे विजित किया गया और वहाँ भीम सिंह बड़थ्वाल सहित बड़थ्वाल भाइयों को शासक नियुक्त किया गया। बड़थ्वाल भाइयों की तलवारें आज भी दापा घाट के बौद्ध मंदिरों में संरक्षित हैं। दुर्भाग्यवश, वे तिब्बती आक्रमण में वीरगति को प्राप्त हुए।
इसके पश्चात माधोसिंह भण्डारी ने तिब्बत पर आक्रमण किया, लेकिन वह सतलुज नदी के तट स्थित विशहर नामक स्थान पर युद्ध करते हुए मारे गए।
घटनाएं और सामाजिक बदलाव
-
महिपति शाह ने नागा साधुओं की हत्या की, जिसकी पश्चातापस्वरूप वे ऋषिकेश के भरत मंदिर पहुंचे और वहाँ की मूर्ति की आँखें निकाल दी गईं — यह घटना धार्मिक इतिहास में चर्चित है।
-
उन्होंने अपने शासन में “रोटी शुचि” नामक प्रथा आरंभ की, जिसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति — ब्राह्मण या क्षत्रिय — बिना वस्त्र उतारे रसोई बना सकता था।
निर्माण और संस्कृति
-
1625 ई. में उनके काल में श्रीनगर में केशोराय मठ का निर्माण हुआ।
-
उनकी रानी कर्णावती ने देहरादून में प्रसिद्ध राजपुर कैनाल और करनपुर नगर की स्थापना की।
अंतिम युद्ध और वीरगति
महिपति शाह ने त्रिमलचंद के साथ कोसी नदी के तट पर युद्ध किया। इस युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए। मुस्लिम लेखकों ने उन्हें “अक्खड़ राजा” कहा है, जबकि प्रसिद्ध चित्रकार और लेखक मौलाराम ने उन्हें “महाप्रचंड भुजदंड” की संज्ञा दी।
माधोसिंह भंडारी
माधोसिंह भंडारी का जन्म सन 1595 में मलेथा (टिहरी) में हुआ था। उनके पिता का नाम सोणबाण कालो भंडारी था। माधोसिंह की पत्नी का नाम उदिना था, और उनके पुत्र का नाम गजे सिंह था। माधोसिंह के पौत्र का नाम अमर सिंह था। राजा मानशाह ने उन्हें ‘सोणबाण’ की उपाधि प्रदान की थी। उनके पुत्रवधू का नाम मथुरा वैराणी था, जिसका एक लेख देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर के द्वार से प्राप्त हुआ है। माधोसिंह को गर्भभंजक और नरकेसरी के नामों से भी जाना जाता है। उन्हें 16वीं सदी का पहला इंजीनियर माना जाता है क्योंकि उन्होंने मलेथा में चंद्रभागा नदी पर पुल का निर्माण कराया था। माधोसिंह की मृत्यु तिब्बत के बिशहर में हुई, जहां वे तुमुल युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे।
लोदी रिखोला
लोदी रिखोला का जन्म पौड़ी में हुआ था और उनके पिता का नाम भौं सिंह रिखोला था। उन्हें गढ़वाल का रखवाला या गढ़वाल के भीम के नाम से जाना जाता है। महिपतिशाह ने धोखे से उनकी हत्या करवाई थी। लोदी रिखोला के नेतृत्व में महिपतिशाह ने सिरमौर के किलों पर विजय प्राप्त की और सिरमौर के राजा कर्मप्रकाश को हराया। गढ़वीर महाकाव्य में रूपमोहन सकलानी ने लोदी रिखोला की वीरता का वर्णन किया है।
पृथ्वीपति शाह
महिपति शाह के बाद पृथ्वीपति शाह ने राजगद्दी संभाली। चूंकि वे उस समय नाबालिग थे, इसलिए रानी कर्णावती उनकी संरक्षक बनीं। रानी कर्णावती ने 1635 से 1640 तक राज्य की बागडोर संभाली।
1640 में पृथ्वीपति शाह ने पंवार राजवंश की राजगद्दी पर अपना अधिकार जमाया। वे गद्दी पर बैठने वाले सबसे कम उम्र के राजा थे, क्योंकि उस समय उनकी आयु केवल सात वर्ष थी। उन्होंने राजगढ़ी (पौढ़ी) को अपनी दूसरी राजधानी बनाया और वहां अपने पुत्र दिलीप शाह को राजा नियुक्त किया।
पृथ्वीपति शाह के नौ पुत्र थे, जिनमें से एक अजबू कुंवर भी था। उन्होंने देहरादून में पृथ्वीपुर नामक नगर की स्थापना की।
उनका पहला सैन्य अभियान सिरमौर के राजा मानधाता प्रकाश के विरुद्ध था, जिसके परिणामस्वरूप हटकोली की संधि हुई। पृथ्वीपति शाह ने मुगल सम्राट शाहजहां की अधीनता स्वीकार नहीं की।
रानी कर्णावती के शासनकाल में, 1636 में, शाहजहां ने परमार राजवंश पर नवाजत खां के नेतृत्व में भारी सेना भेजी, जिसमें एक लाख पैदल सैनिक और तीस हजार घुड़सवार थे। परंतु गढ़वाल के वीर सिपाहियों ने मुगल सेना को ध्वस्त कर दिया और जो बचे, उनके नाक-कान काट दिए। इस घटना के कारण रानी कर्णावती को ‘नाककाटी रानी’ के नाम से जाना गया।
यह नाक काटने की परंपरा रानी कर्णावती ने अपने मित्र बेग मुगल के सुझाव पर शुरू की थी। शाहजहां के साथ हुए युद्धों का वर्णन बादशाहनामा (अब्दुल हमीद लाहौरी) और मासिर उल उमरा (शमशुद्दौला खान) में मिलता है।
रानी कर्णावती की वीरता की तुलना गोंडवाना की शासिका रानी दुर्गावती और मराठा योद्धा ताराबाई से की जाती है।
मुगल सेनापति नवाजत खां युद्ध के दौरान भाग गया और दिल्ली जाकर आत्महत्या कर ली। इस घटना का उल्लेख निकोलस मनूची की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ मुगल में भी मिलता है, साथ ही मुगल दरबार के आधिकारिक रिकॉर्ड मासिर उल उमरा में भी इसका वर्णन है।
बिनसर मंदिर में लिखा है कि रानी कर्णावती के शत्रुओं को बिनसर देवता ने ओलावृष्टि से नष्ट कर दिया था, जिसके उपलक्ष्य में रानी ने मंदिर के शिखर का नवीनीकरण करवाया। इस मंदिर के समीप ही रानीहाट नामक स्थान है, जहां कर्णावती ने शिविर लगाया था।
दून की राजधानी नवादा में अब भी कर्णावती के राजभवन और बावड़ी के अवशेष मौजूद हैं।
मुगल सम्राट अपने अपमान को भूल नहीं पाए और लगभग उन्नीस वर्ष बाद, 1655 में, खलीतुल्ला खान के नेतृत्व में दिल्ली की सेना ने गढ़वाल पर फिर से आक्रमण किया। कुमाऊँ के शासक बाजबहादुर चंद और सिरमौर के राजा मानधाता प्रकाश की सहायता से दून घाटी पर विजय प्राप्त की गई, परंतु श्रीनगर अविजित रहा।
बारिश के मौसम के कारण खलीतुल्ला खान वापस चला गया और विजित प्रदेश की जिम्मेदारी चतुर्भुज चौहान को सौंप दी गई।
1656 में पृथ्वीपति शाह ने छापामार रणनीति अपनाकर देहरादून पर आक्रमण किया और चतुर्भुज चौहान को परास्त कर देहरादून पुनः पंवार वंश के अधीन कर लिया।
इसी वर्ष शाहजहां ने कासिम खान के नेतृत्व में गढ़वाल पर अंतिम आक्रमण किया, जिसमें पृथ्वीपति शाह पराजित हुए।
गढ़वाल के राजकुमार मेदिनी शाह दिल्ली गए जहां उनका भव्य स्वागत हुआ।
1659 में मुगलों और गढ़वाल के बीच वैमनस्य और बढ़ गया जब दारा शिकोह औरंगजेब से हार गया और उसका पुत्र सुलेमान सिकोह गढ़वाल नरेश के यहां शरण लिए। गढ़वाल की राजशक्ति मुगल सल्तनत के विरुद्ध खड़ी थी।
औरंगजेब ने पृथ्वीपति शाह को पत्र लिखकर सुलेमान को तुरंत दिल्ली भेजने का आदेश दिया, लेकिन पृथ्वीपति शाह ने इसे ठुकरा दिया क्योंकि वे अपनी शक्ति और शौर्य पर गर्व करते थे।
इसलिए उन्हें गढ़वाल का हम्मीरदेव कहा जाता है।
औरंगजेब को पता था कि सीधे युद्ध में वह हार जाएगा, इसलिए उसने चालाकी अपनाई। पहले जयसिंह ने श्रीनगर के एक वृद्ध सरदार को प्रलोभन दिया, जो असफल रहा। फिर जयसिंह ने पृथ्वीपति शाह के मंत्री को प्रलोभन दिया, जिसने सुलेमान को जहर देने की कोशिश की, लेकिन सुलेमान ने जहर की जांच एक बिल्ली पर की। मंत्री का सिर कटवा दिया गया।
जयसिंह ने मेदिनी शाह को प्रोत्साहित किया कि वह पिता के विरुद्ध षड़यंत्र रचे। जब मंत्री की मौत हुई, तो पारिवारिक मतभेद बढ़े और मेदिनी शाह ने षड़यंत्र शुरू किया।
जयसिंह के पुत्र रामसिंह को फिर दरबार भेजा गया, लेकिन पृथ्वीपति शाह ने फिर वही जवाब दिया कि वे सुलेमान की रक्षा करेंगे।
मेदिनी शाह और रामसिंह ने सुलेमान के खिलाफ षड़यंत्र रचा, जो सुलेमान को पता चल गया। सुलेमान बिना राजा को बताए तिब्बत की ओर चल पड़ा, लेकिन सीमा पर पकड़ा गया और अंततः 5 जून 1661 को उसे औरंगजेब के सामने पेश कर हत्या कर दी गई। उसे ‘अभागा सहजादा’ कहा गया।
इसी वर्ष मेदिनी शाह ने श्रीनगर छोड़कर दिल्ली जाना पड़ा। वृद्ध पृथ्वीपति शाह ने अपने पुत्र को इस अपराध के कारण देश निकाला दिया था।
1662 में मेदिनी शाह की दिल्ली में मृत्यु हो गई, जिसकी सूचना औरंगजेब ने पृथ्वीपति शाह को दी।
मेदिनी शाह को डरपोक पुत्र माना गया, जबकि पृथ्वीपति शाह को पराक्रमी राजा के रूप में याद किया जाता है।
ट्रैवर्नियर ने अपनी पुस्तक Travels in India में गढ़वाल की वीरता की सराहना की है।
फतेहपति शाह (1667-1716 ई.)
राजा फतेहपति शाह को संगीत प्रेमी होने के कारण प्रीतमशाह के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने सहारनपुर पर आक्रमण किया और द्वरौरा परगना में फतेहपुर नामक नगर बसाया।
फतेहपति शाह के दरबार में नौ रत्न थे — सुरेशानन्द बर्थवाल, खेतराम धसमाना, रूद्रीदत्त किमोठी, हरिदत्त नौटियाल, बासवानन्द बहुगुणा, शशिधर डंगवाल, सहदेव चन्दोला, कीर्तिराम कनठोला और हरिदत्त थपलियाल। इसी कारण उन्हें गढ़वाल का अकबर भी कहा जाता है।
रत्नकवि और मतिराम उनके दरबारी कवि थे। रत्नकवि या क्षेमराज ने हिंदी भाषा में फतेह प्रकाश नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें फतेहपति शाह को हिंदुओं का रक्षक, शील का सागर तथा दण्ड देने वाले उदण्डों का नायक बताया गया है। डॉ. शूरवीर सिंह ने फतेहशाह के जीवन पर ‘फतेहप्रकाश’ नामक पुस्तक लिखी है।
फतेहशाह के शासनकाल में कर्ण ग्रंथ ‘जटाधर’ या ‘जटाशंकर’ द्वारा लिखा गया था। वहीं, मतिराम ने ‘वृत्त कौमुदी’ या ‘छन्दसार पिंगल’ की रचना की, जबकि सुखदेव मिश्र ‘वृत्त विचार’ के लेखक थे। उनके एक अन्य दरबारी कवि रामचंद्र कंडियाल ने ‘फतेहशाह यशोवर्णन’ नामक काव्य लिखा।
फतेहशाह का एक चित्र श्रीनगर से प्राप्त हुआ है, जिसमें वे घोड़े पर सवार हैं, जिससे उन्हें गढ़वाल का शिवाजी कहा जाता है। कवि मतिराम ने भी उन्हें यह उपाधि दी। उनके शासनकाल में गुरु रामराय 1676 में श्रीनगर आए थे।
राजा फतेहशाह ने देहरादून में तीन गांव दान स्वरूप दिए, जहाँ गुरु रामराय ने डेरा डाला और इसी कारण क्षेत्र का नाम देहरादून पड़ा। गुरु गोविन्द सिंह उनके निकट मित्र थे।
सन् 1662 में फतेहशाह ने सिरमौर पर विजय प्राप्त की। हिमाचल प्रदेश के पौंटा और जौनसार के बड़े भाग को गढ़नरेश ने कब्जा कर लिया था। सिरमौर के राजा मेदिनी प्रकाश ने गुरु गोविन्द सिंह से सहायता मांगी, जिन्होंने मित्रता के नाते फतेहशाह को सिरमौर की मित्रता स्वीकार करने और विजित प्रदेश लौटाने का आश्वासन दिलाया।
फतेहशाह ने बिलासपुर के राजा भीमचंद के पुत्र से अपनी पुत्री का विवाह किया। संभवतः राजा भीमचंद गुरु गोविन्द सिंह से शत्रुता रखते थे। उन्होंने फतेहशाह को गुरु द्वारा भेजा गया उपहार लौटाने और चेतावनी दी कि यदि उपहार स्वीकार किया तो नववधू को उनके पिता के घर ही छोड़ दिया जाएगा। यह अपमान सहन न कर पाने के कारण फतेहशाह ने ऐसा ही किया। इसके बाद 1689 में भैंगड़ी पौंटा में गढ़नरेश और गुरु गोविन्द सिंह के बीच युद्ध हुआ, जिसमें फतेहशाह को हार माननी पड़ी।
फतेहशाह के दरबार में दो प्रमुख मंत्री थे — शंकरदत्त डोभाल और पुरिया नैथाड़ी, जिन्हें गढ़वाल का चाणक्य और नाना फड़नवीस भी कहा जाता है। पुरिया नैथाड़ी की चतुराई के कारण औरंगजेब ने गढ़वाल में जजिया कर नहीं लगाया। वे अस्तबल के प्रमुख भी थे।
फतेहपति शाह की संरक्षिका राजमाता कटौची थीं, जो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा के राजा की पुत्री थीं। उनके पाँच भाई थे, जिन्हें ‘पाँच भाई कठैत’ कहा जाता है। ये अत्याचारी और करदाताओं के लिए जाने जाते थे। उन्होंने जनता पर कई कर लगाए, जैसे चुलकर (घर के चूल्हों के अनुसार) और स्यूदा सूपा कर (परिवार की महिलाओं की संख्या के अनुसार)।
पुरिया नैथाड़ी और शंकरदत्त डोभाल की सहायता से जनता ने पाँच भाई कठैतों की हत्या पंचभैयाखाल में कर दी।
फतेहशाह के शासनकाल को गढ़वाल का स्वर्णकाल माना जाता है। उन्होंने गढ़सार गांव को बद्रीनाथ मंदिर को दान दिया था। रत्नकवि कहते हैं कि उस समय राज्य में इतनी शांति और सुरक्षा थी कि लोग अपने घरों में ताले तक नहीं लगाते थे। मंगतराम उनके दरबारी चित्रकार थे।
उपेन्द्र शाह (1716 ई.)
फतेहशाह के उत्तराधिकारी उपेन्द्र शाह हुए, जिन्होंने मात्र आठ माह तक शासन किया और दीपावली के दिन उनकी मृत्यु हो गई।
प्रदीपशाह (Pradeepshah) (1717-1773 ई)
उपेन्द्र शाह के पश्चात प्रदीपशाह गढ़वाल की गद्दी पर बैठे। वे दिलीप शाह के पुत्र थे। जब प्रदीपशाह सिंहासन पर आए, तब वे अभी अवयस्क थे, इसलिए उनकी संरक्षा जिया कनकदेई ने संभाली।
प्रदीपशाह के शासनकाल के प्रारंभ में, 1723 में चंद राजा देवीचंद की सेना ने पंवार राज्य पर आक्रमण किया। दोनों सेनाओं के बीच रणचूलाकोट नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ, जिसमें चंद सेना विजयी रही। हालांकि, पंवार सेना ने हार नहीं मानी और गणाई में पुनः युद्ध हुआ, जहां पंवार सेना ने बाज़ी मारी।
प्रदीपशाह के समय कुमाऊं और गढ़वाल के बीच अच्छे सम्बन्ध बने रहे। जब रोहलों ने कुमाऊं पर हमला किया, तो कुमाऊं के राजा कल्याणचंद की सहायता हेतु प्रदीपशाह ने गढ़वाल के रणबांकुरे भेजे। हालांकि, दोनों राज्यों की संयुक्त सेना रोहेलों को रोक नहीं सकी और अंततः संधि हुई। रोहेलों ने कुमाऊं के राजा से 3 लाख रुपए मित्रता बनाए रखने के लिए मांगे, जो प्रदीपशाह ने गढ़वाल के राजकोष से दिए, तब रोहेल वापस चले गए।
1757 में रोहेलों ने नजीब खां के नेतृत्व में भाबर और दून घाटी गढ़वाल से छीन ली। नजीब खां की मृत्यु 1770 में हुई, और उसी वर्ष 31 अक्टूबर को दून घाटी पुनः गढ़वाल के अधीन आ गई। इस दौरान भारत में प्लासी (1757), पानीपत (1761), और बक्सर (1764) के युद्ध भी हुए।
कुमाऊं के कल्याणचंद के बाद उनका पुत्र दीपचंद राजा बना, जिसकी संरक्षा शिवदेव जोशी करते थे। शिवदेव जोशी से असंतुष्ट होकर हरिराम जोशी ने प्रदीपशाह को चंद राज्य पर हमला करने के लिए उकसाया। इसके फलस्वरूप तामाचौड़ में दोनों राज्यों के बीच युद्ध हुआ, पर शिवदेव जोशी ने प्रदीपशाह के उच्च अधिकारियों को अपने पक्ष में कर लिया, जिससे प्रदीपशाह को हार का सामना करना पड़ा।
प्रदीपशाह के दरबार के प्रमुख कवि मेधाकर थे, जिन्होंने ‘प्रदीप रामायण’ की रचना की। मौलाराम को भी सबसे पहले संरक्षण प्रदीपशाह ने दिया। उनके मंत्री चंद्रमणि डंगवाल थे, जिन्होंने डांग में मंगलेश्वर शिव मंदिर का निर्माण कराया।
1772 में प्रदीपशाह का निधन पक्षाघात के कारण हुआ। उनके शासनकाल में ‘मोनाशाही तिमाशा’ मुद्रा चलायी गई, जिसमें से एक सिक्का आज लखनऊ के संग्रहालय में सुरक्षित है।
प्रदीपशाह ने देहरादून में सिख मंदिर के लिए धामूवाला, पंडितवाड़ी तथा भूपतवाला में जमीन दान स्वरूप दी।
प्रदीपशाह और कुमाऊं के राजा कल्याणचंद के संबंध भी मधुर थे। 1731 में प्रदीपशाह ने अपने प्रतिनिधि भुजबल सिंह को कुमाऊं भेजा क्योंकि कल्याणचंद की बेटी का विवाह था। 1738 में प्रदीपशाह के वकील बंधु मित्र व लक्ष्मीधर ओझा कल्याणचंद के दरबार गए, जहां मैत्रीपत्र और उपहार आदान-प्रदान हुआ। इसके बाद ये वकील जयपुर के राजा जयसिंह के पास भी मैत्रीपूर्ण पत्र लेकर गए, जिससे मित्रता और भी मजबूत हुई।
तामाचौड़ (तामाढौंन) के युद्ध में प्रदीपशाह के सेनापति नरपति गुलेरिया वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में प्रदीपशाह को पराजय का सामना करना पड़ा।
ललितशाह (या ललिपतशाह) (1772-1780 ई)
प्रदीपशाह के बाद ललितशाह गढ़वाल के शासक बने। उनके शासनकाल में कुमाऊं में दीपचंद चंद वंश का शासक था। उसी समय मोहन सिंह रौतेला नामक व्यक्ति ने स्वयं को कुमाऊं का शासक घोषित कर दिया, लेकिन मंत्रियों ने उसका समर्थन नहीं किया। इस अवसर का फायदा उठाकर हर्षदेव जोशी ने ललितशाह को कुमाऊं पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया।
1779 में ललितशाह और मोहनचंद के बीच बग्वालीपोखर में युद्ध हुआ, जिसमें मोहनचंद (मोहन सिंह रौतेला) की हार हुई। मोहनचंद और उसका भाई लाल सिंह नवाब फैजुल्ला के संरक्षण में रामपुर चले गए।
ललितशाह ने अपने पुत्र प्रद्युम्न शाह को प्रद्युम्न चंद के नाम से कुमाऊं का शासक घोषित किया और हर्षदेव जोशी को अपना प्रधानमंत्री बनाया। प्रद्युम्न चंद ने खुद को दीपचंद का दत्तक पुत्र भी घोषित कर लिया।
ललितशाह के चार पुत्र थे — जयकृतशाह, प्रद्युम्न शाह, पराक्रम शाह और प्रीतमशाह। गढ़राज्य लौटते समय, जब ललितशाह अपने पुत्र से विदा ले रहे थे, तो उन्हें मलेरिया हो गया और 1780 में दुलड़ी (अल्मोड़ा) में उनकी मृत्यु हो गई।
ललितशाह के शासनकाल में सिक्खों ने दो बार — 1775 और 1778 में — दून पर आक्रमण किया। 1779 में उन्होंने सिरमार राज्य पर भी हमला किया और सिरमौर का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की।
जानें टिहरी रियासत का इतिहास (1815-1949 ई०)
जयकृतशाह (1780-1786 ई)
ललितशाह के बाद जयकृतशाह गढ़वाल की गद्दी पर बैठे। वे और उनके सौतेले भाई प्रद्युम्न शाह के बीच गहरी शत्रुता थी। जयकृतशाह ने अपने भाई प्रद्युम्न शाह को सत्ता से हटाने के लिए मोहनसिंह की मदद की। इससे नाराज़ होकर प्रद्युम्न शाह ने 1780 में हर्षदेव जोशी के नेतृत्व में देवलगढ़ को लूटा और श्रीनगर पर हमला किया। श्रीनगर में वह तीन वर्ष तक रहा, फिर वापस कुमाऊं लौट गया।
1783 में सिक्ख प्रमुख बुघेल सिंह ने दून पर आक्रमण किया। जयकृतशाह ने सिक्खों के आक्रमण से बचने के लिए 4000 रुपये वार्षिक राखी कर देना स्वीकार किया। राखी कर लूट-मार न करने के बदले में दिया जाता था, जो आमतौर पर उपज का पांचवां हिस्सा होता था।
1786 में रोहेलों ने गुलाम कादिर के नेतृत्व में दून पर फिर से आक्रमण किया, जो रोहेलों का दूसरा आक्रमण था।
जयकृतशाह अपने भाइयों की सत्ता के प्रति लालच, मंत्रियों की साजिशों और अंततः विश्वास पात्र धनीराम द्वारा धोखा दिए जाने से मानसिक रूप से टूट गए। हताश और निराश होकर वे रघुनाथ मंदिर, देवप्रयाग गए, जहाँ चार दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई। उनकी चार पत्नियां भी सती हो गईं। कहा जाता है कि जयकृतशाह ने मरते समय प्रद्युम्न शाह और पराक्रम शाह को श्राप दिया था।
जयकृतशाह को उनके अधिकारी धनीराम ने धोखा दिया था। वे पंवार शासक थे जिन्होंने मौलाराम को 60 गांव की जागीर दी थी।
जयकृतशाह का शासनकाल — षड्यंत्र और विद्रोह का दौर
जयकृतशाह के दरबार में दो प्रमुख दल थे — खंडूरी दल और डोभाल दल। खंडूरी दल के नेता नित्यानंद खंडूरी थे और डोभाल दल के प्रमुख कृपाराम डोभाल। कृपाराम डोभाल की तानाशाही इतनी बढ़ गई थी कि जो भी उसका विरोध करता, उसे मौत के घाट उतार दिया जाता। उसने हर्षदेव जोशी के साथ मिलकर षड्यंत्र किया और नित्यानंद खंडूरी की आंखें निकालवा दीं।
इसके बाद नित्यानंद के रिश्तेदारों शामा खंडूरी और नेगी जाति के सदस्यों ने दून से श्रीनगर तक के गवर्नर घमंड सिंह मियां को बुलाया और डोभाल के अत्याचारों की शिकायत की। घमंड सिंह ने खुले दरबार में डोभाल की गर्दन काट दी।
1785 में सिरमौर के राजा जगत प्रकाश और हर्षदेव जोशी के बीच कपरोली का युद्ध हुआ, जिसमें जयकृतशाह ने अपने मित्र जगत प्रकाश का समर्थन किया, जबकि प्रद्युम्न शाह हर्षदेव जोशी के पक्ष में थे। इस युद्ध के बाद हर्षदेव जोशी को भागकर कुमाऊं आना पड़ा।
1785 में जोशियाड़ा कांड भी हुआ, जिसमें हर्षदेव जोशी के नेतृत्व में कुमाऊं की सेना ने गढ़वाल पर आक्रमण किया। इस घटना को ही जोशियाड़ा कांड कहा जाता है।
विशेष जानकारी:
-
हर्षदेव जोशी को उत्तराखंड का मैकियावेली, शासक निर्माता और कुमाऊं का चाणक्य कहा जाता है।
-
संस्कृत विद्वान राहुल सांस्कृत्यायन ने उन्हें ‘कुमाऊं विभीषण’ कहा था।
-
कैप्टन हियरसे ने हर्षदेव जोशी को ‘अलवारिक’ कहा।
-
ब्रिटिश इतिहासकार एटकिंशन ने उन्हें स्वार्थपूर्ण और देशद्रोही बताया।
-
हर्षदेव जोशी शिवदेव जोशी के पुत्र थे।
प्रद्युम्न शाह (Pradyumanshah) (1786-1804 ई)
जयकृतशाह के निधन के बाद प्रद्युम्न शाह और पराक्रम शाह दोनों गढ़वाल पहुँचे, जिनके साथ हर्षदेव जोशी भी थे। 1786 में प्रद्युम्न शाह और पराक्रम शाह ने संयुक्त रूप से कुमाऊँ और गढ़वाल पर शासन किया। बाद में प्रद्युम्न शाह को दोनों राज्यों का एकमात्र नरेश घोषित किया गया, जिसे दोनों राज्यों की जनता ने खुशी-खुशी स्वीकार किया। लेकिन पराक्रम शाह इससे असंतुष्ट थे, क्योंकि वे स्वयं गढ़वाल के सिंहासन पर बैठना चाहते थे।
1785 में हर्षदेव जोशी ने प्रद्युम्न शाह के प्रतिनिधि के रूप में कुमाऊँ पर शासन संभाला, लेकिन मोहनचंद ने इसका विरोध किया। इसी कारण 1786 में पाली गांव (नथड़ागढ़ी) का युद्ध हुआ, जिसमें हर्षदेव जोशी श्रीनगर भाग गए। मोहनचंद ने 1788 तक शासन किया, लेकिन उसी वर्ष हर्षदेव जोशी ने मोहनचंद की हत्या कर दी।
उसके बाद हर्षदेव जोशी ने प्रद्युम्न शाह को अल्मोड़ा आने का निमंत्रण दिया, लेकिन प्रद्युम्न शाह ने इसे अस्वीकार कर दिया। 1788 में प्रद्युम्न शाह ने अल्मोड़ा को ठुकराकर गढ़वाल की गद्दी संभाली, लेकिन उनके राज्य में कभी शांति नहीं रही क्योंकि उनके भाई पराक्रम शाह लगातार उनके विरुद्ध षड्यंत्र करते रहे।
मौलाराम ने अपने ग्रंथ ‘गढ़ गीता संग्राम’ या ‘गणिका नाटक’ में पराक्रम शाह की काली करतूतों का खुलासा किया है। उन्होंने पराक्रम शाह को विलासी, दुराचारी और चरित्रहीन बताया है। पराक्रम शाह ने मौलाराम की गढ़िका छीन ली और उसकी जागीर भी अपने कब्जे में ले ली।
पराक्रम शाह ने प्रद्युम्न शाह के वफादार मंत्रियों, जैसे खंडूरी भाइयों और रामा-धरणी की हत्या करवा दी। अंततः पराक्रम शाह ने प्रद्युम्न शाह को बंदी बना लिया। इसके बाद प्रद्युम्न शाह के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह के साथ भी उनका युद्ध हुआ। सेना दो गुटों में बंटी और गढ़वाल गृहयुद्ध की आग में जल उठा।
1801 में गोरखों ने गढ़वाल की आंतरिक परिस्थितियों का लाभ उठाया और एक प्रतिनिधि भेजकर राज्य के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार प्राप्त कर लिया। इससे पहले 1791 में गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया था।
1790 में हर्षदेव जोशी के निमंत्रण पर गोरखा नरेश रण बहादुर शाह ने अल्मोड़ा पर कब्जा किया। इसके बाद वे गढ़वाल की ओर बढ़े और 1791 में लंगूरगढ़ (पौड़ी) में प्रद्युम्न शाह से संधि की। उसी वर्ष चीन ने नेपाल पर आक्रमण कर दिया, जिसके कारण गोरखा नेपाल लौट गए।
प्रद्युम्न शाह ने आगे आने वाले आक्रमणों से बचने के लिए गोरखों को वार्षिक 25,000 रूपए की धनराशि देना स्वीकार किया।
1803 में गढ़वाल में भयंकर भूकंप आया, जिसमें लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या खत्म हो गई। इस आपदा का फायदा उठाकर गोरखों ने पुनः गढ़वाल पर हमला कर दिया। गोरखा सेनापति हस्तीदल चौतरिया और अमरसिंह थापा के नेतृत्व में भारी विनाश हुआ।
प्रद्युम्न शाह ने गोरखों से युद्ध के लिए अपना कीमती सोने का सिंहासन सहारनपुर में बेच दिया था। यह सिंहासन पहले कत्यूरियों से अजयपाल ने छीन लिया था।
गोरखों और प्रद्युम्न शाह के बीच बाराहाट (उत्तरकाशी) में युद्ध हुआ जिसमें गोरखा विजयी रहे। चंबा या चमुआ के युद्ध में भी गोरखों की जीत हुई।
अंतिम निर्णायक युद्ध 14 मई 1804 को देहरादून के खुड़बुड़ा क्षेत्र में लड़ा गया, जिसमें प्रद्युम्न शाह वीरगति को प्राप्त हुए। उन्हें गोरखा कुंवर रंजीत की गोली लगी थी।
गोरखों ने प्रद्युम्न शाह का अंतिम संस्कार हरिद्वार में किया।
प्रद्युम्न शाह के भाई कुंवर प्रीतम शाह को गोरखों ने बंदी बना काठमांडू भेज दिया, जबकि उनके पुत्र सुदर्शन शाह ने हरिद्वार में रहकर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।
उनकी मांग पर अंग्रेज़ों ने अक्टूबर 1814 में गोरखों के विरुद्ध सेना भेजी।
1795 में गढ़वाल में एक भयंकर अकाल पड़ा, जिसे ‘इकावनो-बावनी’ कहा जाता है क्योंकि यह संवत 1851-52 में हुआ था।
महाराजा प्रद्युम्न शाह को संपूर्ण गढ़-कुमाऊँ का राजा माना जाता है और वे गढ़वाल के हुमायूं कहे जाते हैं। वे अंतिम स्वतंत्र पंवार वंशीय राजा थे।
प्रद्युम्न शाह के राजस्वकाल में 1785 में दून पर रोहेलों ने आक्रमण किया, जिनके नेता गुलाम कादिर थे।
प्रद्युम्न शाह के दामाद हरिसिंह गुलेरिया, जो गुलाम कादिर के मंत्री थे, जनता पर अत्याचार करते थे।
1796 में प्रद्युम्न शाह और उम्मेद सिंह के बीच संधि हुई।
1792 के लगभग सिरमौर के राजा धर्मप्रकाश ने दून पर आक्रमण किया, लेकिन पराक्रम शाह ने उसे पराजित किया।
धर्मप्रकाश ने पुनः सेना भेजी, जिसका नेतृत्व ईश्वरी सिंह ने किया। 1793 में खुशहालपुर के समीप इन सेनाओं के बीच युद्ध हुआ, जिसमें सिरमौर की सेना विजयी रही।
अगर आपको उत्तराखंड का इतिहास से सम्बंधित यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो इसे Facebook | Twitter | Instagram व | Youtube शेयर करें।