
आधुनिक पत्रकारिता आज भले ही टीवी चैनलों, डिजिटल प्लेटफार्मों और सोशल मीडिया के नए दौर में फल-फूल रही हो, लेकिन उत्तराखंड की पत्रकारिता का इतिहास कहीं अधिक समृद्ध, संघर्षशील और प्रेरक है। यह इतिहास केवल खबरों के छपने भर का नहीं, बल्कि उस लेखनी की गाथा है जिसने सत्ता के अत्याचार और जनता की पीड़ा के बीच सेतु का काम किया।
पत्रकारिता का मूल स्वभाव ही सवाल करना और अन्याय के खिलाफ खड़ा होना है। उत्तराखंड की धरती से निकले कई अखबारों और पत्रकारों ने इस परंपरा को न सिर्फ जीवित रखा बल्कि इसे स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक जागरण का हथियार बनाया।
अल्मोड़ा अखबार और बद्रीदत्त पांडे का संघर्ष
उत्तराखंड की पत्रकारिता का सबसे बड़ा मोड़ अल्मोड़ा अखबार से जुड़ा है। 1871 में इसकी नींव बुद्धि बल्लभ पंत ने रखी थी, लेकिन यह लंबे समय तक सरकारी नीतियों का समर्थन करता रहा। असली बदलाव तब आया जब 1913 में बद्रीदत्त पांडे इसके संपादक बने।
उन्होंने जंगलात नीति, कुली बेगार प्रथा और अंग्रेजी शासन की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ बेबाक लेख लिखे। उनका एक लेख इतना धारदार था कि उसने तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर लोमश की नींद उड़ा दी। अंग्रेज सरकार ने अल्मोड़ा अखबार पर प्रतिबंध लगा दिया। यह सिर्फ एक अखबार पर रोक नहीं थी, बल्कि पत्रकारिता पर हुआ वह कुठाराघात था जो दिखाता है कि सत्ताएं लेखनी की शक्ति से कितनी भयभीत होती हैं।
विक्टर मोहन जोशी – मजदूरों और वंचितों की आवाज
उत्तराखंड की पत्रकारिता का नाम आते ही विक्टर मोहन जोशी को भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने 20वीं सदी के शुरुआती दौर में मजदूरों, किसानों और आम जनता की समस्याओं को मुखरता से उठाया। विक्टर मोहन ने केवल अखबारों के जरिए ही नहीं, बल्कि संगठित आंदोलनों के माध्यम से भी समाज में चेतना जगाई। उनकी पत्रकारिता में वर्ग संघर्ष की छाप स्पष्ट दिखती है।
गिरिजा दत्त नैथानी और गढ़वाल समाचार
1902 में गिरिजा दत्त नैथानी ने गढ़वाल समाचार का प्रकाशन किया, जिसे गढ़वाल का पहला हिंदी समाचार पत्र माना जाता है। नैथानी जी को गढ़वाल का पत्रकारिता जनक कहा जाता है। उन्होंने जंगलात आंदोलन, कुली प्रथा और सामाजिक समस्याओं को अपने लेखों में केंद्रित किया। उनके लेखों ने ब्रिटिश सत्ता को असहज कर दिया।
शक्ति पत्र और बद्रीदत्त पांडे की कलम
जब अल्मोड़ा अखबार पर पाबंदी लगी, तब बद्रीदत्त पांडे ने 1918 में शक्ति नामक समाचार पत्र निकाला। यह पत्र उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में एक मुखर आवाज बन गया। “शक्ति” ने न केवल अंग्रेजी हुकूमत को ललकारा, बल्कि स्थानीय आंदोलनों जैसे जंगल सत्याग्रह, कुली बेगार विरोध और महिला चेतना को भी बल दिया।
महिला पत्रकारों की भूमिका – लक्ष्मी देवी टम्टा
उत्तराखंड की पत्रकारिता केवल पुरुषों तक सीमित नहीं रही। समता एक साप्ताहिक समाचार पत्र था जिसका प्रकाशन मुंशी हरिप्रसाद टम्टा ने 1934ई० में किया यह एक हिंदी अखबार था। इस अखबार का मूल उद्देश्य दबे-कुचले पिछड़े समाज को उचित अधिकार दिलाना था। सन 1935ई० में श्रीमती लक्ष्मी देवी टम्टा ने इस अखबार का संपादन किया। श्रीमती लक्ष्मी देवी उत्तराखंड की पहली दलित महिला पत्रकार थी। उनका काम उस दौर में सामाजिक क्रांति की ओर एक ऐतिहासिक कदम था।
पत्रकारिता पर कुठाराघात – पुराना सच
इतिहास हमें साफ दिखाता है कि सत्ता हमेशा पत्रकारिता से असहज रही है। ब्रिटिश सरकार ने अखबारों पर पाबंदियां लगाईं, संपादकों से जमानत मांगी, जेल में डाला। कभी अल्मोड़ा अखबार बंद हुआ, तो कभी गढ़देश और स्वाधीन प्रज्ञा जैसे पत्रों को भारी जुर्माने की मार झेलनी पड़ी।
इससे यह साफ होता है कि पत्रकारिता पर दबाव और कुठाराघात कोई नई बात नहीं है। तब भी लेखनी को कुचलने की कोशिश हुई और आज भी कभी न कभी यह चर्चा होती है। फर्क बस इतना है कि तब यह कलम जनता को आज़ादी दिलाने का औजार थी, और आज यह लोकतंत्र को बचाए रखने की जिम्मेदारी निभा रही है।
आज के दौर में सबक
उत्तराखंड की पत्रकारिता का इतिहास केवल समाचार छापने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह सत्ता से सवाल पूछने और समाज की आवाज़ बनने का भी सशक्त जरिया रहा है। आज जब पत्रकारिता पर तरह-तरह के दबावों और प्रतिबंधों की बात होती है, तो हमें याद रखना चाहिए कि यह कुठाराघात कोई नया नहीं है—यह संघर्ष उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी हमारी पत्रकारिता की परंपरा।
आज की पत्रकारिता की स्थिति अलग है। हमारे पास टीवी, डिजिटल प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया जैसे शक्तिशाली साधन मौजूद हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या निडरता और वैचारिक प्रतिबद्धता उतनी ही प्रखर है, जितनी उस दौर में थी? तब पत्रकारों के लिए जेल जाना और अखबार बंद होना सम्मान का प्रतीक था, जबकि आज पत्रकारिता कई बार राजनीतिक दबाव, कॉर्पोरेट स्वार्थ और टीआरपी की होड़ से जकड़ी दिखाई देती है।
फिर भी जब भी पत्रकार अपनी कलम को जनता की आवाज़ और सत्ता से सवाल करने का औज़ार बनाते हैं, तब समाज में बड़ा बदलाव आता है। यही उत्तराखंड की पत्रकारिता की सबसे बड़ी विरासत है—लेखनी अगर सच और न्याय के साथ खड़ी हो, तो कोई भी ताकत उसे दबा नहीं सकती।
अगर आपको उत्तराखंड से सम्बंधित यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो इसे शेयर करें साथ ही हमारे Facebook | Twitter | Instagram व | Youtubeको भी सब्सक्राइब करें।