
कुमाऊँनी भाषा (Kumaoni Language)
Kumaoni Language: कुमाऊँनी भाषा उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र की आत्मा और पहचान है। इसे स्थानीय लोग प्यार से “कुमाऊँनी” कहते हैं और यह भाषा सदियों से पहाड़ के जीवन, लोकसंस्कृति, परंपराओं और सामूहिक स्मृति को सँजोए हुए है। कुमाऊँनी एक इंडो-आर्यन भाषा है, जो सेंट्रल पहाड़ी भाषा समूह से संबंधित है और गढ़वाली की सगी बहन मानी जाती है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 20 लाख लोग कुमाऊँनी भाषा बोलते हैं, हालांकि वास्तविक संख्या इससे अधिक मानी जाती है क्योंकि बड़ी आबादी प्रवास में रहते हुए भी घरों में कुमाऊँनी का प्रयोग करती है। यह भाषा मुख्य रूप से उत्तराखंड के अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, बागेश्वर और चंपावत जिलों में बोली जाती है, जबकि नेपाल के डोटी क्षेत्र में भी इसके बोलने वाले मिलते हैं। कुमाऊँनी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और लंबे समय तक यह मौखिक परंपरा के रूप में जीवित रही। आज भी इस भाषा में पहाड़ की सादगी, अपनापन और भावनात्मक गहराई साफ झलकती है।
कुमाऊँनी भाषा का इतिहास
कुमाऊँनी भाषा का इतिहास अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली है। इसके लिखित प्रमाण कत्युरी और चंद वंश के समय से मिलते हैं, जब मंदिरों की शिलाओं और ताम्रपत्रों पर कुमाऊँनी में राजकीय आदेश और दानपत्र अंकित किए गए। 989 ईस्वी का एक ताम्रपत्र कुमाऊँनी भाषा का महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण माना जाता है। कुमाऊँ राज्य के समय यह भाषा आम जनता की बोलचाल की भाषा होने के साथ-साथ प्रशासनिक प्रयोग में भी आती थी। संस्कृत धार्मिक और शास्त्रीय भाषा थी, लेकिन लोकजीवन कुमाऊँनी में ही चलता था। बाद में ब्रिटिश शासन और स्वतंत्रता के बाद उत्तर प्रदेश में विलय के कारण हिंदी का प्रभाव बढ़ा, जिससे कुमाऊँनी धीरे-धीरे औपचारिक क्षेत्रों से बाहर होती चली गई। फिर भी लोकगीतों, कथाओं, रामलीला और परंपरागत मेलों के माध्यम से यह भाषा पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रही। इतिहास गवाह है कि कुमाऊँनी केवल भाषा नहीं रही, बल्कि कुमाऊँ की सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक निरंतरता का आधार बनी।
भौगोलिक विस्तार और कुमाऊँनी बोलियाँ
कुमाऊँनी भाषा का विस्तार केवल एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह कई उपबोलियों में विभक्त होकर पूरे कुमाऊँ मंडल में फैली हुई है। सामान्य रूप से इसे मध्य, पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी कुमाऊँनी में बाँटा जाता है। अल्मोड़ा और उत्तरी नैनीताल में बोली जाने वाली काली या सेंट्रल कुमाऊँनी को अपेक्षाकृत मानक माना जाता है। पिथौरागढ़ क्षेत्र में सोरियाली और सिराली बोली जाती है, जबकि मुनस्यारी और मिलम क्षेत्र में जौहारी बोली प्रचलित है। हल्द्वानी और रामनगर क्षेत्र में भाभरी कुमाऊँनी का प्रयोग होता है, जो मैदानी प्रभाव से थोड़ी भिन्न सुनाई देती है। गंगोलीहाट में गंगोली बोली जाती है और चंपावत क्षेत्र में कुमैयाँ बोली का प्रयोग होता है। इन सभी बोलियों में उच्चारण, शब्दावली और लहजे में अंतर है, लेकिन मूल संरचना और भाव एक ही रहता है। यही विविधता कुमाऊँनी भाषा को जीवंत और समृद्ध बनाती है।
कुमाऊँनी भाषा की ध्वन्यात्मक विशेषताएँ (Phonology)
कुमाऊँनी भाषा की ध्वन्यात्मक संरचना इसे हिंदी और अन्य उत्तर भारतीय भाषाओं से अलग पहचान देती है। इसमें दन्त्य, मूर्धन्य और तालव्य ध्वनियों का प्रयोग व्यापक रूप से होता है। कुमाऊँनी में कुछ व्यंजन ऐसे हैं जिनका उच्चारण सांसयुक्त (breathy) होता है, जो इसे विशिष्ट बनाता है। स्वर प्रणाली भी समृद्ध है, जिसमें दीर्घ और ह्रस्व स्वरों के साथ-साथ क्षेत्र के अनुसार उच्चारण में भिन्नता मिलती है। उदाहरण के लिए /ɑ/ और /ɔ/ जैसे स्वर कई बार अलग-अलग ध्वनियों के रूप में सुनाई देते हैं। कुमाऊँनी में कई शब्द ऐसे हैं जो हिंदी से मिलते-जुलते होते हुए भी उच्चारण और अर्थ में अलग हो जाते हैं। यह ध्वन्यात्मक विविधता भाषा को न केवल संगीतात्मक बनाती है, बल्कि लोकगीतों और कथाओं में विशेष प्रभाव भी पैदा करती है। यही कारण है कि कुमाऊँनी गीत सुनते ही पहाड़ की छवि मन में उभर आती है।
कुमाऊँनी भाषा का व्याकरण और क्रिया रूप
कुमाऊँनी भाषा का व्याकरण इंडो-आर्यन भाषाओं के समान होते हुए भी अपनी अलग पहचान रखता है। इसमें क्रियाओं का रूप लिंग और वचन के अनुसार बदलता है, जो इसे हिंदी से थोड़ा अलग बनाता है। उदाहरण के लिए “लेख” धातु से वर्तमान, भूत और भविष्य काल में अलग-अलग रूप बनते हैं। कुमाऊँनी में सहायक क्रिया “छे, छन, छो” जैसे रूपों में आती है, जो बोलचाल को विशिष्ट बनाती है। संज्ञा, सर्वनाम और विभक्ति प्रणाली भी गढ़वाली और अन्य पहाड़ी भाषाओं से काफी मिलती-जुलती है। व्याकरण की यह संरचना कुमाऊँनी को एक पूर्ण और स्वतंत्र भाषा के रूप में स्थापित करती है, न कि केवल हिंदी की बोली के रूप में। यही कारण है कि भाषावैज्ञानिक इसे सेंट्रल पहाड़ी भाषा समूह की एक महत्वपूर्ण कड़ी मानते हैं।
कुमाऊँनी भाषा की वर्तमान स्थिति और भविष्य
UNESCO ने कुमाऊँनी भाषा को “Unsafe Language” की श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ है कि यह भाषा अभी जीवित है लेकिन संरक्षण की आवश्यकता है। इसका मुख्य कारण है शिक्षा, प्रशासन और रोजगार के क्षेत्रों में हिंदी और अंग्रेज़ी का वर्चस्व। पहाड़ों से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के कारण नई पीढ़ी कुमाऊँनी से दूर होती जा रही है। हालांकि हाल के वर्षों में कुमाऊँनी पुस्तकों को प्राथमिक स्कूलों में शामिल करना, लोकसंगीत, रंगमंच और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर बढ़ती उपस्थिति जैसे कदम आशा जगाते हैं। यदि कुमाऊँनी भाषा को शिक्षा, मीडिया और तकनीक से जोड़ा जाए, तो इसका भविष्य सुरक्षित हो सकता है। भाषा तभी जीवित रहती है जब वह घरों में बोली जाए और गर्व के साथ अगली पीढ़ी को सौंपी जाए।