
Shanivaar vrat katha: जानें शनिवार व्रत कथा के बारें में
Shanivaar vrat katha: शनिदेव को न्याय के देवता माना जाता है। वे कर्मों के अनुसार फल देने वाले देव हैं। उनके प्रकोप से राजा से लेकर रंक तक नहीं बच सकता। परंतु यदि कोई श्रद्धा से शनिवार का व्रत रखता है, पूजा करता है और व्रत कथा सुनता है, तो शनिदेव प्रसन्न होकर उसके सभी कष्ट हर लेते हैं। यह कथा राजा विक्रमादित्य और शनिदेव के बीच की है, जिसमें शनि की महिमा और उनकी कृपा का प्रभाव विस्तार से बताया गया है।
शनिवार व्रत कथा का प्रारंभ
बहुत प्राचीन समय की बात है, जब देवी-देवता, ऋषि-मुनि स्वर्ग लोक से भूलोक तक बिना किसी बाधा के आ-जा सकते थे। उन्हीं दिनों स्वर्ग लोक में नवग्रहों के बीच यह विवाद छिड़ गया कि कौन सबसे बड़ा और शक्तिशाली है। प्रत्येक ग्रह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानता था और इसी कारण उन सभी में भारी वाद-विवाद हो गया। इसका असर पृथ्वी लोक पर भी पड़ा — मौसम, फसल, मानव जीवन सब अस्त-व्यस्त होने लगा।
देवराज इंद्र इस समस्या को सुलझाने के लिए सामने आए। उन्होंने नवग्रहों को अपने दरबार में बुलाया और उनकी बात सुनी, परंतु वे भी इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ रहे। तब इंद्रदेव ने कहा —
“आप सभी भूलोक के महान और न्यायप्रिय राजा विक्रमादित्य के पास जाएं, वही इस विवाद का समाधान कर सकते हैं।”
राजा विक्रमादित्य की परीक्षा
नवग्रह राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुँचे और अपना प्रश्न दोहराया —
“हे राजन! बताइए, हम नवग्रहों में सबसे बड़ा और शक्तिशाली कौन है?”
राजा विक्रमादित्य यह सुनकर थोड़े असमंजस में पड़ गए। उन्हें यह भय था कि यदि किसी एक को श्रेष्ठ बताया गया, तो बाकी ग्रह रुष्ट हो सकते हैं, जिससे सृष्टि में और अधिक अशांति फैलेगी। राजा ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए एक युक्ति निकाली।
उन्होंने प्रत्येक ग्रह के लिए एक-एक सिंहासन बनवाया। सूर्य के लिए स्वर्ण का, चंद्रमा के लिए रजत का, मंगल के लिए तांबे का, बुध के लिए पीतल का, गुरु के लिए कांसे का, शुक्र के लिए संगमरमर का, राहु-केतु के लिए काले पत्थर का और शनि के लिए लोहे का सिंहासन बनवाया। फिर सभी से कहा —
“आप सभी अपने-अपने सिंहासन पर विराजमान हों। जो सिंहासन आगे होगा, वह सबसे श्रेष्ठ माने जाएगा।”
राजा ने शनिदेव का सिंहासन सबसे पीछे रखा। इसे देखकर शनिदेव क्रोधित हो गए। उन्होंने कहा —
“हे मूर्ख राजा! सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, शुक्र आदि ग्रह किसी राशि में कुछ दिनों या महीनों तक ही रहते हैं, परंतु मैं शनि एक ही राशि में ढाई से सात साल तक रहता हूं। तुमने मेरा अपमान किया है, जिसका दंड तुम्हें अवश्य मिलेगा।”
यह कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए।
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शनिदेव का प्रकोप आरंभ
कुछ समय बीतते ही राजा विक्रमादित्य पर शनि की साढ़े साती की दशा शुरू हो गई। शनि ने एक घोड़े व्यापारी का रूप धारण किया और राजा के राज्य में पहुंच गए। वे एक बहुत सुंदर घोड़ा लेकर दरबार पहुंचे। राजा को वह घोड़ा बहुत भाया और उन्होंने उसे खरीद लिया।
जैसे ही राजा उस घोड़े पर सवार हुए, घोड़े को पंख लग गए और वह उड़ता हुआ उन्हें एक घने जंगल में ले गया। वहाँ जाकर घोड़ा अदृश्य हो गया। राजा अकेले जंगल में रह गए — राज्य से दूर, भूखे-प्यासे, अज्ञात भूमि पर।
विक्रमादित्य की दुर्दशा
जंगल में भटकते हुए राजा एक चरवाहे से मिले। उन्होंने उससे पानी माँगा। चरवाहे ने उन्हें पानी दिया और पास के नगर का रास्ता बताया। चलकर जब वे नगर पहुंचे, तो वे थककर एक सेठ की दुकान पर बैठ गए। जैसे ही वे बैठे, दुकान पर ग्राहकों की भीड़ लग गई। सेठ को लगा कि यह व्यक्ति बहुत ही शुभ और सौभाग्यशाली है।
सेठ ने राजा को अपने यहाँ रुकने का आग्रह किया। भोजन के समय सेठ बाहर चला गया और राजा खाने लगे। उसी समय राजा ने देखा कि दीवार पर टंगा हुआ बहुमूल्य हार दीवार की कील में समा गया। जब सेठ वापस आया और हार गायब पाया, तो उसे संदेह हुआ और उसने राजा को चोर समझा।
नगर के सैनिकों को बुलाया गया और राजा को राजा के पास ले जाया गया। बिना जांच-पड़ताल के राजा विक्रमादित्य को दंड स्वरूप हाथ-पैर कटवा दिए गए। वे अब असहाय और अपंग बन चुके थे।
एक तेली की करुणा
उन्हें एक तेली ने देखा और उस पर दया आ गई। उसने विक्रमादित्य को अपने कोल्हू पर बैठा दिया ताकि वह बैलों को हाँक सकें और बदले में दो समय का भोजन पा सकें। राजा अब एक अपंग कोल्हू मजदूर बन गए।
समय बीतता गया, धीरे-धीरे शनि की दशा समाप्त होने को आई। वर्षा ऋतु आई। एक दिन राजा मल्हार गा रहे थे, तभी वहाँ से नगर की राजकुमारी मनभावनी की सवारी निकली। राजा की स्वर-लहरियाँ सुनकर राजकुमारी मोहित हो गई।
राजकुमारी ने पता करवाया तो जाना कि वह व्यक्ति एक अपाहिज है। लेकिन स्वर-संवेदना और आत्मा की सुंदरता से प्रभावित होकर उसने ठान लिया कि वह विक्रमादित्य से ही विवाह करेगी। और ऐसा ही हुआ — दोनों का विवाह संपन्न हो गया।
शनिदेव का प्राकट्य और कृपा
विवाह के बाद उसी रात शनिदेव राजा के स्वप्न में आए। उन्होंने कहा —
“हे राजन! यह सब मेरे प्रकोप का परिणाम था। मैंने तुम्हारे अभिमान को तोड़ा और तुम्हें यह अनुभव कराया कि मैं क्यों सबसे बलवान हूँ।”
विक्रमादित्य ने क्षमा मांगी और कहा —
“हे प्रभु! मुझे अब आपकी शक्तियों का भलीभांति ज्ञान हो गया है। मेरी आपसे विनती है कि किसी और के साथ ऐसा न हो।”
तब शनिदेव बोले —
“हे राजा! आज से जो भी भक्त श्रद्धा से शनिवार का व्रत करेगा, मेरी पूजा करेगा और यह व्रत कथा सुनेगा, उसके सभी कष्ट दूर होंगे और मैं उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करूंगा।”
यह कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए।
चमत्कार और शांति का पुनर्स्थापन
अगले दिन सुबह विक्रमादित्य ने देखा कि उनके हाथ-पैर पुनः पूर्ववत हो चुके हैं। राजकुमारी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। राजा ने अपनी सारी आपबीती सुनाई।
उधर सेठ को जब यह बात पता चली, तो वह अत्यंत लज्जित हुआ और दौड़कर आया। उसने क्षमा मांगी। विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि अब उन्हें ज्ञात था कि यह सब शनि की महिमा का ही परिणाम था।
सेठ ने उन्हें दोबारा अपने यहाँ आमंत्रित किया। वहाँ भी एक चमत्कार हुआ — जो हार दीवार की कील निगल गई थी, वही हार वापस बाहर निकल आया। सभी ने शनिदेव की इस माया को नमन किया।
सेठ ने भी अपनी कन्या का विवाह राजा से करवा दिया। अब राजा अपनी दोनों पत्नियों के साथ अपने राज्य लौटे। नगरवासियों ने हर्षोल्लास के साथ उनका भव्य स्वागत किया।
उपसंहार और संदेश
राजा विक्रमादित्य ने अगले दिन नगर में घोषणा करवाई —
“शनि नवग्रहों में सबसे शक्तिशाली हैं। प्रत्येक नर-नारी को शनिवार के दिन शनिदेव का व्रत करना चाहिए, उनकी पूजा करनी चाहिए और इस व्रत कथा को सुनना चाहिए।”
इस दिन से शनिवार व्रत की परंपरा शुरू हुई। जो भी श्रद्धापूर्वक इस व्रत को करता है, वह सभी बाधाओं और कष्टों से मुक्त होता है।
व्रत विधि संक्षेप में
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शनिवार के दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करके साफ वस्त्र धारण करें।
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शनिदेव की प्रतिमा या चित्र के सामने दीपक जलाएं।
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सरसों के तेल का दीपक, काले तिल, काले वस्त्र, उड़द दाल आदि चढ़ाएं।
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शनिदेव के मंत्र “ॐ शं शनैश्चराय नमः” का जाप करें।
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कथा सुनें या पढ़ें।
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दान-पुण्य करें — विशेष रूप से काले वस्त्र, तिल और लोहा।
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शाम को पीपल वृक्ष के नीचे दीपक जलाएं।
यह शनिवार व्रत कथा हमें यह सिखाती है कि कर्मों का फल अवश्य मिलता है। शनिदेव न्याय के देवता हैं, वे किसी का अहित नहीं करते। जो सच्चे मन से उनकी पूजा करता है, व्रत करता है, वे उसके सभी दुख हर लेते हैं। राजा विक्रमादित्य की यह कथा आज भी लोगों को शनिदेव की महिमा का बोध कराती है और उन्हें धार्मिक आस्था के मार्ग पर प्रेरित करती है।
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