History of Tehri State in Hindi (1815-1949 A.D.): जानें टिहरी रियासत का इतिहास (1815-1949 ई०)
History of Tehri State in Hindi (1815-1949 A.D.): टिहरी रियासत की स्थापना गढ़वाल क्षेत्र में गोरखा आक्रमणों के बाद हुई थी। 14 मई 1804 को देहरादून के खुडबुड़ा क्षेत्र में प्रद्युमन शाह का निधन गोरखा सैनिक कुंवर रंजीत की गोली लगने से हुआ। गोरखों ने 1804 से 1815 तक गढ़वाल पर शासन किया। बाद में सुदर्शन शाह, प्रद्युमन शाह के पुत्र, ने अंग्रेजों की सहायता से 1815 में गोरखाओं को परास्त किया और इसी के साथ टिहरी रियासत की स्थापना हुई। सुदर्शन शाह टिहरी के पहले राजा बने।
टिहरी रियासत के राजाओं का कालक्रम
सुदर्शन शाह (1815-1859)
भवानी शाह (1859-1871)
प्रताप शाह (1871-1886)
कीर्ति शाह (1886-1913)
नरेन्द्र शाह (1913-1946)
मानवेन्द्र शाह (1946-1949)
सुदर्शन शाह (1815-1859 ई.)
गढ़वाल पर गोरखा शासन होने पर सुदर्शन शाह कनखल-ज्वालापुर जाकर अपने राजपरिवार के साथ रहने लगे थे। उस समय उनकी आयु लगभग 20 वर्ष थी और वे ग्यारह वर्षों तक अपने खोए हुए राज्य को वापस पाने के लिए लगातार प्रयत्नशील रहे।
1809 से 1811 तक वे बरेली में भी रहे, जहां उनकी मुलाकात कैप्टन हियरसी नामक एक धनी एंग्लो-इंडियन से हुई, जिसकी करेली रियासत बरेली के निकट थी। सुदर्शन शाह ने कंपनी सरकार से सहायता मांगी, जिसके परिणामस्वरूप कंपनी ने गोरखों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। 1815 में गोरखे पराजित हुए।
हालांकि कंपनी ने सुदर्शन शाह से युद्ध के व्यय के रूप में 5 लाख रुपये मांगे, जिन्हें वह चुकाने में असमर्थ थे। अंततः 1815 में गढ़राज्य का विभाजन हुआ। सुदर्शन शाह को रंवाई और दून परगनों को छोड़कर अलकनंदा और मंदाकिनी के पश्चिमी भाग मिले। लेकिन वे अपनी राजधानी श्रीनगर बनाना चाहते थे।
सुदर्शन शाह फ्रेजर के साथ श्रीनगर पहुंचे, लेकिन उन्हें वहां जगह नहीं मिली। जुलाई 1815 में ट्रेल कुमाऊं के असिस्टेंट कमिश्नर नियुक्त हुए, जिन्हें गढ़वाल में भूमि प्रबंधन के लिए भेजा गया। 1816 में उनकी रिपोर्ट के आधार पर नागपुर परगने में टिहरी और ब्रिटिश गढ़वाल की सीमाएं निर्धारित हुईं।
4 मार्च 1820 को सुदर्शन शाह और ब्रिटिश सरकार के बीच एक संधि हुई, जिसके तहत ब्रिटिश सरकार ने टिहरी गढ़वाल पर उनका अधिकार स्वीकार किया। राजगुरू नौटियाल ने भिलंगना नदी के किनारे सेमल के मैदान में उनका राजतिलक किया। इसके बदले गढ़राजा ने किसी भी विपत्ति के समय अंग्रेज सरकार को सहायता का वचन दिया।
1824 में रंवाई का परगना भी टिहरी राज्य में शामिल कर लिया गया। 26 दिसंबर 1842 को ब्रिटिश सरकार ने टिहरी राज्य में अपना राजनैतिक प्रतिनिधि कुमाऊं के कमिश्नर को नियुक्त किया।
28 दिसंबर 1815 को महाराजा सुदर्शन शाह ने टिहरी को अपनी राजधानी बनाया। 6 फरवरी 1820 को अंग्रेज अधिकारी मूरक्राफ्ट टिहरी पहुंचे, जिन्होंने सुदर्शन शाह को कार्यशील और बुद्धिमान शासक बताया। फिर भी उन्हें इस बात का दुख था कि वे अपने पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर को वापस नहीं पा सके।
महाराजा सुदर्शन शाह ने अपने लिए टिहरी नगर में ‘पुराना दरबार’ नामक राजप्रसाद बनवाया, जिसका निर्माण 1848 में शुरू हुआ था। नया दरबार 1880-81 में कीर्ति शाह ने बनवाया, जबकि पुराना दरबार उनके भाई विचित्र शाह के हिस्से में गया।
सुदर्शन शाह ने अंग्रेज अधिकारी फ्राइटन की बाघ से रक्षा भी की थी। टिहरी में पहला भूमि बंदोबस्त 1823 में इसी काल में हुआ था।
प्रीतम शाह का आगमन
सुदर्शन शाह के चाचा प्रीतम शाह 1804 से नेपाल में बंदी थे, वहीं उनका विवाह भी हुआ।
सन् 1817 में नेपाल के दरबार ने प्रीतम शाह को टिहरी गढ़वाल लौटने की अनुमति दी। राजा ने उनकी उचित देखभाल का इंतजाम किया और जब तक वे जीवित रहे, पिता के समान उनका सम्मान किया गया।
1826 में निःसन्तान प्रीतम शाह का निधन हो गया। गोरखा युद्ध के बाद कंपनी सरकार ने शिवराम और काशीराम नामक मुआफीदारों को पुनः स्थापित किया। ये सकलाना के जागीरदार धीरे-धीरे राजा से भी बढ़कर खुद को समझने लगे। इसके विरोध में सकलाना के कमीण, सयाणा और प्रजा ने मिलकर आंदोलन किया, जो टिहरी राज्य का पहला जन आंदोलन था।
सन् 1851 में जब सकलाना के मुआफीदार अपने कर्मचारियों के साथ अठूर के लोगों से तिहाड़ वसूलने लगे, तो अठूरवासियों ने विद्रोह कर दिया, जिसका नेतृत्व बद्रीसिंह अस्वाल ने किया।
सुदर्शन शाह के काल में भूमिकर 1/8 हिस्सा अन्नादि के रूप में और 7/8 हिस्सा नकद के रूप में वसूला जाता था।
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राजा ने अंग्रेजों की मदद की। उनकी इस वफादारी के चलते ब्रिटिश सरकार उन्हें बिजनौर देना चाहती थी, लेकिन इसी बीच राजा का निधन हो गया।
अजबराम ने राजा को दाता और ज्ञाता सूरमा बताया, जबकि भजन राय कवि ने उन्हें दृढ़ वचन वाला राजा कहा। वे विपत्ति में घबराने वाले और संपत्ति में इतराने वाले नहीं थे। राज्य मिलने के बाद भी उनका जीवन सरलता और सादगी से गुजरा।
सुदर्शन शाह कला प्रेमी थे। उन्होंने केवल मौलाराम ही नहीं, बल्कि चैतू, माणूक जैसे गढ़वाली चित्रकारों को भी संरक्षण दिया। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि हरिदत्त शर्मा उनके राजकवि थे, जिन्होंने ‘सभाभूषणम्’ सहित अनेक ग्रंथों की रचना की। सुदर्शन कालीन दो बाड़ाहाट प्रशस्तियाँ भी उन्हीं ने लिखीं, जिनमें सुदर्शन शाह की कला-कुशलता की प्रशंसा की गई है।
दरबार के कुमुदानंद ने ‘सुदर्शनोदय’ काव्य लिखा और मौलाराम ने ‘सुदर्शन दर्शन’ कविता रची, जिसमें उन्होंने राजा को सूम, कृपण और खशिया नृप कहा। भक्तदर्शन ने लिखा कि सुदर्शन शाह एक योग्य और प्रजावत्सल शासक थे।
गुमानी पंत और मनोरथ पंत कुमाऊं से तथा मोक्षमंडल नेपाल से उनकी राजसभा में आये थे।
1828 में सुदर्शन शाह ने ब्रजभाषा में ‘सभासार’ नामक मुक्तक काव्य लिखा, जिसमें उन्होंने स्वयं को ‘सूरत कवि’ कहा है। उनकी प्रजा उन्हें ‘बोलांदा बद्री’ के नाम से पुकारती थी।
सुदर्शन शाह की पत्नी का नाम खनेती था, जिन्होंने 1857 में उत्तरकाशी के विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।
भवानी शाह (1859-1871 ई.)
राजा सुदर्शन शाह ने अपने जीवनकाल में अपने ज्येष्ठ पुत्र भवानी शाह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। भवानी शाह सरल स्वभाव के व्यक्ति थे और अपने उदार दानशील स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे।
भवानी शाह कठौच कुल की कन्या गुणदेवी के पुत्र थे, परन्तु उनकी छोटी रानी खनेती उनसे असंतुष्ट रहती थी। इसके कारण उसने राजकुमार शेरशाह को भवानी शाह के विरुद्ध उकसाया।
इस वजह से 1859 में शेरशाह और भवानी शाह के बीच उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ, जिसमें भवानी शाह हार गए। शेरशाह लगभग 9 माह तक राजगद्दी पर विराजमान रहे।
भवानी शाह के राज्याभिषेक से पहले मियां प्रेम सिंह की गुलदस्ता तवारीख (कोह टिहरी गढ़वाल) और टिहरी गढ़वाल स्टेट रिकॉर्ड्स में षड्यंत्रों का विवरण मिलता है।
अंग्रेजी सरकार ने इस विवाद को सुलझाने के लिए कमिश्नर रैम्जे को भेजा। रैम्जे ने टिहरी आकर 6 सितंबर 1859 को भवानी शाह को राज्यभार सौंपने की घोषणा की।
25 अक्टूबर 1859 को भवानी शाह का राज्याभिषेक हुआ, लेकिन विद्रोह के डर से रैम्जे ने उन्हें देहरादून में नजरबंद कर दिया।
1862 में भवानी शाह ने देवप्रयाग में संस्कृत और हिंदी की प्रारंभिक पाठशाला की स्थापना की।
भवानी शाह का विवाह मंडी के राजा की दो राजकुमारियों से हुआ था। बड़ी रानी मंडियाली से प्रताप शाह और हिण्डूरू जी से विक्रम शाह का जन्म हुआ। इसके अलावा प्रमोद सिंह सहित कुल छह पुत्र थे।
प्रताप शाह को हिन्दी, फारसी और अंग्रेजी भाषाओं की शिक्षा प्राप्त थी। अपने राज्यकाल में उन्होंने कई महत्वपूर्ण सुधार किए।
सन् 1873 में उन्होंने भू-व्यवस्था करवाई, जिसे ज्यूला पैमाइश के नाम से जाना जाता है। टिहरी में प्रताप शाह ने पहला प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया, जो राज्य का पहला प्रिंटिंग प्रेस था।
1876 में उन्होंने खैराती शफाखाना की स्थापना की, जहाँ भारतीय और यूरोपीय चिकित्सा पद्धतियों से इलाज होता था।
सन् 1877 में राजा ने प्रतापनगर बसाया। 1883 में राजधानी में अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की गई, जिसका नाम कीर्ति शाह ने ‘प्रताप हाईस्कूल’ रखा। इस तरह प्रताप शाह ने गढ़वाल में अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत की।
राजस्व वसूली में आने वाली कठिनाइयों को देखते हुए उन्होंने राज्य को 22 पट्टियों में विभाजित किया और प्रत्येक पट्टी के लिए एक कारदार नियुक्त किया। ये कारदार ब्रिटिश गढ़वाल के पटवारियों के समान थे, परंतु उनकी नियुक्ति केवल एक वर्ष के लिए होती थी।
प्रताप शाह ने टिहरी-मसूरी तथा टिहरी-श्रीनगर के दो महत्वपूर्ण राजमार्गों का निर्माण भी कराया।
1885 में महारानी गुलेरिया की सलाह पर उन्होंने राज्य में प्रचलित कुप्रथाओं जैसे खेण (बगार), पाला (दरबार में दूध, दही, घी पहुंचाना) और बिशाह (अन्न कर के रूप में भंडार में देना) को समाप्त किया। पाला बिसाऊ नामक कर की समाप्ति का श्रेय लछमू कठैत को जाता है, जिन्होंने राजदरबार में कई सुधार किए। सजग और निडर लछमू कठैत की राजपदाधिकारियों द्वारा विषैली मदिरा देकर हत्या कर दी गई।
प्रताप शाह ने आदेश दिया कि हीन जाति के लोगों को किसी के हाथ विक्रय न किया जाए और न ही उन्हें दास बनाया जाए। साथ ही दलितों को गांवों में भूमि भी दिलवाई गई।
प्रताप शाह के शासनकाल में कवि देवराज ने ‘गढ़वाल राजा वंशावलि’ की रचना की और राजा की प्रशंसा करते हुए उन्हें ‘दाता द्विजानां च सुमार्गगामी भर्ता प्रजायाः सुविचायूर्यकर्ता’ कहा।
प्रताप शाह की प्रथम रानी कठौची का विवाह के बाद डेढ़ वर्ष में देहांत हो गया। उनकी महारानी गुलेरिया कुन्दनदेई से तीन पुत्र हुए — युवराज कीर्ति शाह, विचित्र शाह और सुरेन्द्र शाह।
प्रताप शाह ने संकल्प लिया था कि वे अपनी राजधानी को मसूरी से भी भव्य और सुंदर बनाएंगे। उन्होंने टिहरी राज्य में पुलिस प्रशासन की भी व्यवस्था की स्थापना की।
राजा कीर्ति शाह (1886-1913 ई.)
कीर्ति शाह अवयस्क अवस्था में ही गद्दी पर बैठे थे। राजमाता गुलेरिया ने उनके चाचा विक्रम शाह को संरक्षक नियुक्त किया था, लेकिन लगभग एक वर्ष बाद उनकी अकुशलता देखकर राजमाता ने शासन अपने हाथ में ले लिया और कीर्ति शाह की सहायता के लिए संरक्षण समिति (काउंसिल ऑफ रिजेन्सी) बनाई।
सयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर अलफ्रेड कालविन ने स्वयं टिहरी आकर राजमाता के निष्पक्ष और कुशल शासन की प्रशंसा की थी।
जब कीर्ति शाह 18 वर्ष के हुए, तब 16 मार्च 1892 को महारानी ने उन्हें राज्यभार सौंप दिया और स्वयं तपस्या के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया।
राजमाता ने अपने आभूषण बेचकर राजधानी में बद्रीनाथ, रंगनाथ, केदारनाथ, गंगामाता के चार मंदिर और एक धर्मशाला का निर्माण करवाया।
सन् 1892 में कीर्ति शाह का विवाह नेपाल के प्रधानमंत्री राजा जंगबहादुर की पौत्री नेपालिया राजलक्ष्मी से हुआ।
महाराजा कीर्ति शाह ने टिहरी में प्रताप हाईस्कूल (1891), कैम्पबेल बोर्डिंग हाउस (1907) और हिबेट संस्कृत पाठशाला (1909) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त राज्य में 25 प्राथमिक पाठशालाएं भी खोली गईं।
गढ़वाली ठेकेदारों को प्रोत्साहित करने हेतु उन्होंने ठेकेदार गंगाराम खण्डूरी को देवदार के 1500 पेड़ मुफ्त में दिये। किसानों की सहायता के लिए 2 लाख रुपए से बैंक ऑफ गढ़वाल खोला गया।
कीर्ति शाह ऐसे पहले शासक थे, जिन्होंने टिहरी में पहली बार जनता को बिजली की सुविधा प्रदान की। उन्होंने टिहरी में नगरपालिका की स्थापना भी की।
टिहरी प्रिंटिंग प्रेस से पाक्षिक पत्र ‘रियासत टिहरी गढ़वाल दरबार गजट’ प्रकाशित होता था।
1896 में उन्होंने अपने नाम से कीर्तिनगर की स्थापना की।
20 जून 1897 को टिहरी में 110 मीटर ऊंचा घंटाघर और नया राजभवन बनवाया गया। यमुना नदी पर हिबेट ब्रिज भी उनके शासनकाल में निर्मित हुआ।
महाराजा कीर्ति शाह ने एक सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन किया।
सन् 1902 में स्वामी रामतीर्थ टिहरी गढ़वाल आए। राजा ने उन्हें जापान में आयोजित सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। स्वामी रामतीर्थ का जन्म 22 अक्टूबर 1873 को पंजाब के गुंजरावाला में दीपावली के दिन हुआ था और 17 अक्टूबर 1906 को उन्होंने टिहरी के पास भिलंगना नदी में जल समाधि ली। कीर्ति शाह ने स्वामी रामतीर्थ के लिए गोलकोठी नामक भवन बनवाया।
टिहरी के राजाओं में महाराजा कीर्ति शाह को सबसे योग्य और आदर्श शासक माना जाता है। उन्होंने राज्यभार संभालते ही अपनी कुशल शासन कला से ब्रिटिश शासकों का सम्मान और प्रशंसा प्राप्त की।
1892 के आगरा दरबार में वायसराय लैंसडाउन ने कीर्ति शाह की प्रशंसा करते हुए कहा था कि “भारत के राजकुमारों के लिए कीर्ति शाह को आदर्श मानना सौभाग्य की बात होगी।”
सन् 1907 में टिहरी आए कैम्पबेल ने कहा था कि “कीर्ति शाह जैसा राजा मैंने भारत के किसी भी भाग में नहीं देखा।”
उन्होंने उत्तरकाशी में कुष्ठ आश्रम की स्थापना की।
कीर्ति शाह के कानूनी सलाहकार तारादत्त गैरोला थे और वजीर हरिकृष्ण रतूड़ी थे। वजीर हरिकृष्ण रतूड़ी को उन्होंने गढ़वाल की परंपराओं पर आधारित ‘नरेन्द्र हिन्दू लॉ’ तथा गढ़वाल का इतिहास लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। इसी संरक्षण में हरिकृष्ण रतूड़ी ने गढ़वाल का इतिहास लिखा।
कीर्ति शाह के निजी सचिव भवानी दत्त उनियाल थे। उन्होंने ‘गढ़वाली सैपर्स’ नामक फौज भी बनाई।
कीर्ति शाह सभी धर्मों का सम्मान करते थे। उन्होंने मुसलमानों के बच्चों के धार्मिक अध्ययन के लिए टिहरी में एक मदरसा भी स्थापित किया।
उनकी शिक्षा अजमेर के मेयो कॉलेज में हुई थी। उनके दो पुत्र थे — नरेन्द्र शाह और सुरेन्द्र सिंह।
कीर्ति शाह संस्कृत, हिंदी, उर्दू, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषाओं के प्रखर विद्वान थे। उन्होंने टिहरी में वेधशाला भी बनवाई, जिसके लिए विदेशी उपकरण मंगवाए गए थे। साथ ही उन्होंने टाइपराइटर का भी अविष्कार किया था।
कीर्ति शाह को प्राप्त सम्मान
सन् 1898 में ब्रिटिश सरकार ने महाराजा कीर्ति शाह को “कम्पेनियन ऑफ इंडिया” की उपाधि प्रदान की। सन् 1900 में वे इंग्लैंड गए जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ और 11 तोपों की सलामी दी गई। सन् 1901 में उन्हें नाइट कमांडर की उपाधि से सम्मानित किया गया। दिल्ली दरबार 1903 में उन्हें ‘सर’ की उपाधि (K.C.F.I) प्रदान की गई। सन् 1906 में कीर्ति शाह को राज्य परिषद का सरकारी सदस्य भी बनाया गया।
महाराजा कीर्ति शाह के निधन के समय नरेन्द्र शाह केवल 13 वर्ष के थे। इस कारण राजमाता नेपोलिया ने संरक्षण समिति की अध्यक्षता संभाली। विचित्र शाह इस समिति के वरिष्ठ सदस्य थे। राजमाता के स्वास्थ्य खराब होने पर क्रमशः सेमियर और म्योर अध्यक्ष बने।
नरेन्द्र शाह को शिक्षा के लिए मेयो कॉलेज, अजमेर भेजा गया। वहीं अध्ययन काल में 1916 में उनका विवाह क्यूंठल की राजकुमारी कमलेन्दुमति और इन्दुमति से हुआ।
सन् 1916 में टिहरी की सीमा मुनि की रेती और टिहरी व देहरादून के बीच चन्द्रभागा नदी द्वारा निर्धारित की गई। इसी वर्ष राज्य में भूमि व्यवस्था प्रारंभ हुई, जिसे डोरी पैमाइश कहा गया।
नरेन्द्र शाह के शासनकाल में हरिकृष्ण रतूड़ी ने 1917 में नरेन्द्र हिंदू लॉ की स्थापना की, जिसे न्याय का आधार बनाया गया और यह ग्रंथ 1918 में राज्य व्यय से प्रकाशित हुआ।
राजा नरेन्द्र शाह ने 1919 में अपने नाम से नरेन्द्र नगर की स्थापना की, जहाँ 1924 में राजभवन का निर्माण हुआ। 1925 में राजधानी वहीं स्थानांतरित की गई।
अपने शासनकाल के प्रथम वर्ष में ही उन्होंने पंचायतों की स्थापना की। 1920 में किसानों को साहूकारों के भारी ब्याज से मुक्ति दिलाने के लिए कृषि बैंक खोला गया। उसी वर्ष उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति निधि भी स्थापित की गई।
1921 में टिहरी में जनगणना कराई गई। 1923 में राज्य शासन में प्रमुख व्यक्तियों के सहयोग हेतु राज्य प्रतिनिधि सभा की स्थापना की गई और उसी वर्ष टिहरी में सार्वजनिक पुस्तकालय भी खोला गया, जिसे बाद में “सुमन लाइब्रेरी” कहा गया।
1929 में दीवान पद पर प्रशासक चक्रधर जुयाल की नियुक्ति की गई, जिन्हें टिहरी का जनरल डायर कहा जाता था।
उन्होंने बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय को 1933 में महाराजा कीर्ति शाह की स्मृति में 1 लाख रूपये और 6000 रूपये वार्षिक सहायता प्रदान की, जिससे बीएचयू में ‘सर कीर्ति शाह चेयर ऑफ इंडस्ट्रियल कैमिस्ट्री’ स्थापित हुई।
शिक्षा के प्रति उनके अथक प्रयासों के लिए बनारस विश्वविद्यालय ने 1937 में उन्हें एलएलडी की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
1938 में नरेन्द्र शाह ने कीर्तिनगर में हाईकोर्ट स्थापित किया। 1940 में प्रताप हाईस्कूल इंटर कॉलेज बना। 1942 में राजमाता नेपोलिया ने नरेन्द्र नगर में कन्या पाठशाला खोली।
नरेन्द्र शाह ने न्याय सुविधा के लिए परगनों में परगनाधिकारी नियुक्त किए और सिविल एवं सेशन जज की अदालत स्थापित की।
उनके दो पुत्र थे — बड़ी रानी कमलेन्दुमति से कंवर विक्रम शाह और छोटी रानी इन्दुमति से मानवेन्द्र शाह।
नरेन्द्र शाह ने नरेन्द्र नगर को बाहरी सड़कों से जोड़ने के लिए अनेक मार्गों का निर्माण कराया। वन विभाग के विकास हेतु कई युवकों को फारेस्ट ट्रेनिंग स्कूल, देहरादून भेजा।
उनके शासनकाल में दो दुखद घटनाएं हुईं — 30 मई 1930 को यमुना किनारे तिलाड़ी मैदान में रवाई कांड और 25 जुलाई 1944 को टिहरी जेल में 84 दिन के अनशन के बाद श्रीदेव सुमन का बलिदान। नरेन्द्र शाह इन दोनों घटनाओं के लिए दोषी नहीं थे।
रवाई कांड के समय वे यूरोप यात्रा पर थे और सुमन जी के अनशन के दौरान वे बंबई बैठक में थे, जहाँ उन्होंने स्पष्ट आदेश दिया था कि सुमन जी को मुक्त किया जाए।
नरेन्द्र शाह की मृत्यु 22 दिसंबर 1950 को एक कार दुर्घटना में हुई।
मानवेन्द्र शाह (Manvendra Shah)
मानवेन्द्र शाह का राज्याभिषेक 5 अक्टूबर 1946 को संपन्न हुआ। उनके शासनकाल के दौरान टिहरी में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुईं।
1947 में सकलाना विद्रोह हुआ, जिसका नेतृत्व नागेन्द्र सकलानी और दौलतराम ने किया। इस संघर्ष में नागेन्द्र सकलानी और भोलाराम शहीद हो गए। इसके पश्चात 1948 में कीर्तिनगर विद्रोह हुआ, जिसमें दौलतराम की मृत्यु हो गई।
1 अगस्त 1949 को टिहरी रियासत का भारतीय संघ में विलय कर दिया गया और उसे संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) का 50वां जनपद घोषित किया गया। इस विलीनीकरण पत्र पर परिपूर्णानंद ने हस्ताक्षर किए।
मानवेन्द्र शाह के काल में 1947 में “शांति रक्षा अधिनियम” भी पारित हुआ।
मानवेन्द्र शाह न केवल एक राजा थे, बल्कि वे सक्रिय रूप से लोकतांत्रिक राजनीति में भी शामिल रहे। वे 8 बार सांसद चुने गए। उनका निधन 5 जनवरी 2007 को हुआ।
टिहरी नरेशों का प्रशासन (Administration of Tehri Kings)
गढ़वाल नरेश राज्य के सर्वोच्च शासक होते थे। उनके शासन में प्रशासनिक कार्यों के लिए एक संगठित मंत्रिमंडल होता था।
मुख्तार राज्य का सर्वोच्च मंत्री होता था।
मंत्रिमंडल में धर्माधिकारी का महत्वपूर्ण स्थान होता था। मौलाराम ने इसके स्थान पर ओझा गुरु का उल्लेख किया है।
सीमांत सुरक्षा, राजस्व वसूली और कानून व्यवस्था बनाए रखने का उत्तरदायित्व फौजदार के पास होता था।
राजधानी की सुरक्षा का भार गोलदार संभालते थे।
नेगी जाति के लोगों को भी मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता था और प्रमुख निर्णयों में उनसे परामर्श लिया जाता था।
त्वरित समाचार पहुँचाने के लिए चणु नामक संदेशवाहक होते थे।
राजस्व संग्रहण का कार्य थोकदार (जिन्हें कभी-कभी सयाणा या कमीण भी कहा जाता था) के जिम्मे होता था।
थोकदार प्रधान द्वारा नियुक्त किए जाते थे, जो अपने अधीन ग्रामों से कर वसूल करते थे।
राजा को प्रजा एक देवता के स्वरूप, “बोलांदा बदरीनाथ” अर्थात साक्षात बद्रीश्वर मानती थी। युवराज को “टीका” कहा जाता था। पंवार वंश के राजाओं के नाम के साथ कभी-कभी “रजवार” शब्द का भी प्रयोग हुआ है।
पंवार राजवंश में विद्वानों को संरक्षण (Shelter to Scholars in Panwar Dynasty)
गढ़वाल नरेशों को विशेष रूप से चित्रकला के संरक्षणदाता के रूप में प्रसिद्धि मिली।
उनके आश्रय में श्यामदास तोमर और उनके वंशजों ने राजपूत चित्रकला की पहाड़ी शाखा को नई दिशा दी। यह शैली बाद में गढ़वाली कलम के नाम से जानी जाने लगी।
गढ़राज्य में मुगल शैली की चित्रकला की शुरुआत का श्रेय श्यामदास और उनके पुत्र हरदास को दिया जाता है।
प्रसिद्ध चित्रकार मौलाराम ने अपने पिता मंगतराम से मुगल शैली सीखी थी। उनके गुरु का नाम रामसिंह था।
टिहरी साम्राज्य का प्रशासन
टिहरी नरेश, अपने पूर्वजों की ही भांति, राज्य के सर्वोच्च अधिकारी माने जाते थे। समस्त राजकीय अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार राजा के पास होता था और वह मंत्रिपरिषद् का अध्यक्ष होता था।
प्रशासन में दीवान और वज़ीर सबसे उच्च पदाधिकारी होते थे। राज्य के सभी विभाग और उनके कार्यालय वज़ीर के अधीन रहते थे, जबकि राज्य की नीतियों और आंतरिक व्यवस्था का निर्धारण दीवान व वज़ीर द्वारा किया जाता था।
सुदर्शन शाह के शासन काल में प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए राज्य को चार ठाणों में विभाजित किया गया, जिनके प्रमुख ठाणेदार कहलाते थे। ये ठाने आगे चलकर परगनों और पट्टियों में विभाजित थे।
परगनों की व्यवस्था का उत्तरदायित्व सुपरवाइज़र पर होता था। दफतरी एक महत्वपूर्ण पद होता था, जिसका कार्यालय एक प्रकार के सचिवालय जैसा होता था। यह पद कर्मचारियों की नियुक्ति, स्थानांतरण, वेतन, दंड, पुरस्कार और जागीरों से संबंधित कार्यों को संभालता था।
वकील दूत के रूप में कार्य करता था, जबकि चोपदार राजा के साथ चांदी का दंड लेकर चलता था। सोदी नामक व्यक्ति राजपरिवार के भोजन की व्यवस्था करता था। राज्य के उच्च पदाधिकारियों को वेतन जागीर के रूप में दिया जाता था।
टिहरी साम्राज्य की भू-व्यवस्था
टिहरी नरेश राज्य की समस्त भूमि के पूर्ण स्वामी माने जाते थे। राजा तीन विशेष परिस्थितियों में भूमि स्वामित्व अन्य को सौंप सकता था:
संकल्प या विष्णुप्रीति के अंतर्गत – ब्राह्मणों को
रौत के रूप में – वीर सैनिकों को
जागीर के रूप में – प्रशासनिक अधिकारियों को
जिन्हें ये भूमि दी जाती थी, उन्हें थातवान कहा जाता था। थातवान अपनी भूमि पर पहले से बसे किसानों को बेदखल नहीं कर सकता था। वहाँ बसे किसान खायकर कहलाते थे और जब तक वे राजस्व देते रहते, उन्हें हटाया नहीं जा सकता था।
राजा की अनुमति से जो व्यक्ति नई भूमि पर खेती करता, वह आसामी कहलाता था। आसामी तीन प्रकार के होते थे:
मौरूसीदार – सीधे राजा को कर देने वाला स्वतंत्र किसान
खायकर – मौरूसीदार की भूमि पर खेती करने वाला
सिरतान – भूमि उपयोग के लिए मौरूसीदार या खायकर को नकद राशि देने वाला
राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमिकर (सिरती) था।
साधारण भूमि पर उपज का एक-तिहाई (तिहाड़) और
उपजाऊ भूमि पर आधा भाग (अधेल) कर के रूप में लिया जाता था।
भोटांत क्षेत्रों से कर वसूली करने वाला अधिकारी बूढ़ा कहलाता था।
राज्य की आय सिर्फ भूमि कर तक सीमित नहीं थी। इसके कुल 68 प्रकार के आय स्रोत थे, जिनमें से 36 कर और 32 देय माने जाते थे।
प्रमुख करों में शामिल हैं:
घीकर – पशुओं पर चराई कर
झूलिया कर – नदी पार करने हेतु
मांगा कर – आपदा या युद्धकालीन सुरक्षा हेतु
शखी नेगीचारी कर – भूमि प्रबंधन करने वाले अधिकारियों के लिए
कमीणचारी/सयाणचारी कर – स्थानीय कर्मचारियों या अधिकारियों के लिए
गढ़ नरेशों द्वारा कला को संरक्षण
गढ़ नरेशों ने राजपूत चित्रकला की पहाड़ी शाखा में विशेष योगदान दिया। श्यामदास तोमर और उनके वंशजों ने इस कला को विकसित किया, जिसे बाद में गढ़वाली कलम के नाम से जाना गया।
टिहरी रियासत में भूमि बंदोबस्त (Land Settlement in Tehri State)
टिहरी रियासत में कुल पाँच बार भूमि बंदोबस्त (Land Settlements) किए गए थे, जो निम्नलिखित हैं:
पहला बंदोबस्त – 1823 ई. शासनकाल: सुदर्शन शाह
दूसरा बंदोबस्त – 1860 ई. शासनकाल: भवानी शाह
तीसरा बंदोबस्त – 1873 ई. शासनकाल: प्रताप शाह
चौथा बंदोबस्त – 1903 ई. शासनकाल: कीर्ति शाह
पांचवां बंदोबस्त – 1924 ई. शासनकाल: नरेन्द्र शाह
टिहरी रियासत में स्वास्थ्य व्यवस्था (Health Care in Tehri Riyasat)
टिहरी राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं का आरंभिक विकास राजाओं की दूरदर्शिता और जनकल्याण की भावना के तहत हुआ।
1876 में, राजा प्रताप शाह के शासनकाल में राज्य का पहला खैराती शफाखाना (चैरिटेबल अस्पताल) स्थापित किया गया।
राजा कीर्ति शाह ने तीर्थ यात्रा मार्गों पर छोटे औषधालयों की स्थापना करवाई और राज्य में चेचक (Smallpox) के नियंत्रण हेतु टीकाकरण अभियान प्रारंभ कराया।
1934 में, राज्य में रेड क्रॉस सोसायटी (Red Cross Society) की स्थापना की गई।
1939 में, टिहरी राज्य ने कुष्ठ विधान (Leprosy Act) पारित कर कुष्ठ रोगियों के उपचार और नियंत्रण की व्यवस्था की।
1943 में, राज्य ने टीका विधान (Vaccination Act) पारित किया, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को विधिक संरक्षण मिला।