
History of Chand Dynasty in Uttarakhand in Hindi: जानें उत्तराखण्ड में चंद राजवंश का इतिहास
History of Chand Dynasty in Uttarakhand in Hindi: उत्तराखंड के इतिहास को पहली बार व्यवस्थित रूप से एडविन फेलिक्स थॉमस एटकिंसन ने प्रस्तुत किया था। एटकिंसन एक कीट वैज्ञानिक थे और उनका जन्म 6 सितंबर 1840 को आयरलैंड में हुआ तथा मृत्यु 15 सितंबर 1890 को कोलकाता में हुई। उनके कार्य के पश्चात उत्तराखंड पर लिखी गई अधिकांश सामग्री उनके ही शोध पर आधारित रही।
कत्यूरी वंश के पतन के बाद कुमाऊं क्षेत्र में चंद वंश का उदय हुआ। इस वंश के शासन, संस्कृति और प्रशासन की जानकारी हमें पुरातात्विक साक्ष्यों, साहित्यिक ग्रंथों और लोकगाथाओं से मिलती है।
चंद वंश के ऐतिहासिक अभिलेख और स्रोत
चंद वंश से संबंधित कई महत्वपूर्ण ताम्रपत्र और शिलालेख प्राप्त हुए हैं जो उनके इतिहास को उजागर करते हैं:
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बास्ते ताम्रपत्र (पिथौरागढ़) – आनंदपाल द्वारा जारी
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गोपेश्वर त्रिशूल लेख
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बालेश्वर मंदिर लेख (क्राचल्लदेव)
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बोधगया शिलालेख
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लोहाघाट एवं हुडैती शिलालेख (पिथौरागढ़)
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गड्यूड़ा ताम्रपत्र (चंपावत)
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पाभै ताम्रपत्र (विजय चंद द्वारा)
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कल्याण चंद का कालापानी-गाड़भेटा ताम्रपत्र
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खेतीखान ताम्रपत्र और सीरा से प्राप्त ताम्रपत्र
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मूनाकोट, झिझाड़, सरा-खड़कोट, मझेड़ा ताम्रपत्र
इन अभिलेखों में न केवल राजाओं के नाम और कालक्रम मिलते हैं, बल्कि राजनीतिक संरचना, प्रशासनिक व्यवस्था, और राजकीय देवी नंदा की उपासना की जानकारी भी मिलती है।
चंद वंश की राजधानियाँ
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प्रारंभिक राजधानी: चंपावत (चंपावती नदी के किनारे)
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द्वितीय राजधानी: देवीपुर (अल्मोड़ा), देवी सिंह के काल में
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स्थायी राजधानी: बालो कल्याण चंद के शासनकाल में पूर्ण रूप से अल्मोड़ा
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ग्रीष्मकालीन राजधानी: बिनसर
प्रशासनिक भाषा: कुमाऊँनी
कुल देवी: नंदा देवी
62 चंद शासकों का कालक्रम
यहाँ प्रमुख 62 चंद राजाओं की सूची दी जा रही है:
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सोमचंद (700–721 ई.)
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आत्मचंद (721–740 ई.)
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पूर्णचंद (740–758 ई.)
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इंद्रचंद (758–778 ई.)
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संसारचंद (778–813 ई.)
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सुधाचंद (813–833 ई.)
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हमीरचंद/हरिचंद (833–856 ई.)
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वीणाचंद (856–869 ई.)
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वीरचंद (1065–1080 ई.)
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रूपचंद (1080–1093 ई.)
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लक्ष्मीचंद (1093–1113 ई.)
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धर्मचंद
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कर्मचंद
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कल्याणचंद
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नामी / निर्भयचंद
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नरचंद
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नानकीचंद
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रामचंद
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भीष्मचंद
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मेघचंद
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ध्यानचंद
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पर्वतचंद
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थोहरचंद (1261–1275 ई.)
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कल्याणचंद
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त्रिलोकचंद (1296–1303 ई.)
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डमरूचंद
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धर्मचंद
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अभयचंद (1344–1374 ई.)
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ज्ञानचंद / गरुड़ ज्ञानचंद (1374–1419 ई.)
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हरिहरचंद / हरिचंद (1419–1420 ई.)
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उद्यानचंद (1420–1421 ई.)
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आत्मचंद द्वितीय (1421–1422 ई.)
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हरिचंद द्वितीय (1422–1423 ई.)
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विक्रमचंद (1433–1437 ई.)
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भारतीचंद (1437–1450 ई.)
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रत्नचंद (1450–1488 ई.)
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ताराचंद
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मानिकचंद
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कल्याणचंद तृतीय
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पुनीचंद / पूर्णचंद
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भीष्मचंद (1555–1560 ई.)
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बालो कल्याणचंद (1560–1568 ई.)
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रुद्रचंद (1568–1597 ई.)
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लक्ष्मीचंद (1597–1621 ई.)
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दिलीपचंद (1621–1624 ई.)
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विजयचंद (1624–1625 ई.)
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त्रिमलचंद (1625–1638 ई.)
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बाजबहादुरचंद (1638–1678 ई.)
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उद्योतचंद (1678–1698 ई.)
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ज्ञानचंद (1698–1708 ई.)
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जगतचंद (1708–1720 ई.)
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देवीचंद (1720–1726 ई.)
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अजीतचंद (1726–1729 ई.)
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कल्याणचंद चतुर्थ (1729–1747 ई.)
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दीपचंद (1747–1777 ई.)
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मोहनचंद (1777–1779 ई.)
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प्रद्युम्नशाह (1779–1786 ई.)
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मोहनचंद (द्वितीय कार्यकाल) (1786–1788 ई.)
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शिव सिंह / शिवचंद (1788 ई.)
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महेन्द्रचंद (1788–1790 ई.)
चंद वंश उत्तराखंड के इतिहास में एक गौरवशाली अध्याय है, जिसने न केवल एक संगठित प्रशासनिक व्यवस्था दी, बल्कि कला, संस्कृति, भाषा और धर्म को भी समृद्ध किया। इनके द्वारा छोड़े गए शिलालेख आज भी इतिहासकारों को तत्कालीन समाज और राज्य व्यवस्था को समझने में सहायता प्रदान करते हैं।
सोमचंद (700–721 ई.) – चंद वंश का संस्थापक
सोमचंद को अधिकांश इतिहासकार चंद वंश का वास्तविक संस्थापक मानते हैं। उसने लगभग 700 ईस्वी में इस वंश की नींव रखी थी। हालांकि, कुछ विद्वानों के अनुसार चंद वंश की स्थापना 1025 ई. में मानी जाती है।
संस्थापक को लेकर विभिन्न मत:
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एटकिंसन और बद्रीदत्त पांडे सोमचंद को संस्थापक मानते हैं।
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जबकि हर्षदेव जोशी, फेजर साहब, यशवंत कठौच और हैमिल्टन थोहरचंद को चंद वंश का आरंभकर्ता मानते हैं।
उद्गम और राजधानी:
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सोमचंद का जन्म झूंसी (इलाहाबाद के पास) में हुआ था।
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प्रारंभिक राजधानी प्रतिष्ठान (झूंसी) थी, लेकिन बाद में उसने चंपावत को राजधानी बनाया, जो चंपावती देवी के नाम पर बसा।
बद्रीनाथ यात्रा और विवाह:
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ज्योतिषियों की सलाह पर सोमचंद ने बद्रीनाथ की यात्रा की थी।
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उस समय कुमाऊं पर कत्यूरी शासक ब्रह्मदेव का शासन था।
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ब्रह्मदेव, सोमचंद से प्रभावित हुआ और अपनी पुत्री रमा का विवाह उससे कर दिया।
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विवाह में 15 बीघा भूमि दहेज में दी गई।
राजनीतिक विस्तार:
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सोमचंद ने राजधानी चंपावत बनाकर राज्य विस्तार शुरू किया।
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उस समय काली कुमाऊं क्षेत्र में खश, नाग, द्रविड़, मेद, चांडाल जैसे स्थानीय शासकों का प्रभुत्व था।
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क्षेत्र दो भागों में विभाजित था – मल्लाधड़ (ऊपरी भाग) और तल्लाधड़ (निचला भाग)। मल्लाधड़ के प्रमुख मेहरा और तल्लाधड़ के प्रमुख फर्त्याल थे।
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इन दोनों को सोमचंद ने मंत्री और सेनापति नियुक्त किया।
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मेहरा लोग कोटालगढ़, फर्त्याल लोग डुंगरी में रहते थे।
राजकीय निर्माण और संगठन:
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सोमचंद ने राजबूंगा नामक किला बनवाया, जो अंडाकार था।
(स्थानीय भाषा में ‘बुंगा’ का अर्थ होता है ‘किला’)
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उसने चारान उचार किला भी बनवाया।
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डोटी के राजा जयदेव मल्ल के समय सोमचंद ने शासन किया। वह उसे कर भी देता था।
प्रशासनिक संगठन:
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उसने चार किलेदार नियुक्त किए: कार्की, बोहरा, तड़ागी और चौधरी – जो मूलतः नेपाल से थे। ये चार आल कहलाते थे।
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सेनापति कालू तड़ागी की मदद से सोमचंद ने चंपावत के खश रावत राजा को हराया और आसपास के गांवों पर अधिकार कर लिया।
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रावत राजा का किला राजबूंगा से आधा मील दूर था – जिसे आज कोतवाल चबूतरा कहा जाता है। उसके समीप पितरौड़ा और पितरूढुंगा स्थित हैं।
प्रमुख नियुक्तियाँ:
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दीवान – सुनानिधि चौबे
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राजगुरु – शिमल्टिया पांडे
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पुरोहित – देवलिया पांडे
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कारबारी – मंडलिया पांडे
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कारदार – बिष्ट
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ये सभी चौथानी ब्राह्मण कहलाते थे, जिनमें तिवारी, सिमल्टिया पांडे, बिष्ट और देवलिया पांडे शामिल थे।
सांस्कृतिक योगदान:
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सोमचंद शिव का उपासक था।
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उसके काल में कुमाऊं में पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत हुई।
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यह भी माना जाता है कि ऐंपण कला की नींव भी सोमचंद के समय में ही पड़ी थी।
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उसने ग्रामीण स्तर पर बूढ़ों और सयानों की नियुक्ति की थी, जो पंचायत व्यवस्था का हिस्सा बने।
आत्म चंद (721–740 ई.)
सोम चंद के निधन के बाद उनके पुत्र आत्म चंद ने चंद वंश की गद्दी संभाली। उनका शासनकाल लगभग 19 वर्षों तक चला। आत्म चंद का शासन अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण था, लेकिन इस काल में किसी विशेष उपलब्धि का उल्लेख नहीं मिलता।
पूर्ण चंद (740–758 ई.)
आत्म चंद के बाद पूर्ण चंद शासक बने। उन्होंने 18 वर्षों तक शासन किया।
पूर्ण चंद शिकार के शौकीन थे और राजकाज में विशेष रुचि नहीं लेते थे। वे अपना अधिकतर समय तराई-भाबर क्षेत्र में शिकार में बिताते थे।
बाद में उन्होंने राज्य का संचालन इंद्र चंद को सौंपकर स्वयं पूर्णागिरि देवी की सेवा में लीन हो गए।
इंद्र चंद (758–778 ई.)
इंद्र चंद एक घमंडी शासक था जो स्वयं को देवता इंद्र के समान मानता था।
उसने रेशम उत्पादन की शुरुआत की और चंपावत में रेशम का एक कारखाना स्थापित किया, जो अंग्रेज़ी काल तक विद्यमान रहा।
रेशम का उत्पादन करने वाले पटुवा समुदाय रेशम बुनते समय नगर में जानबूझकर झूठी खबरें फैलाते थे, जिसे पटरंगवाली कहा जाता था। उनका मानना था कि इससे रेशम का रंग अधिक गाढ़ा और सुंदर होता है।
कहा जाता है कि सौंग-जांग गांवों की रानी ने 7वीं शताब्दी में चीन से रेशम के कीड़े लाकर कुमाऊं में रेशम उत्पादन की नींव रखी।
सुधा चंद (813–833 ई.)
सुधा चंद ने शासन में कई सुधार किए।
उन्होंने सैनिक व्यय में कटौती की और जनता को करों से राहत दी। उनका शासनकाल किफायती व जनहितकारी था।
वीणा चंद (856–869 ई.)
वीणा चंद एक विलासी राजा था, जिसके कारण शासन कमजोर हो गया।
इसका फायदा उठाकर खश समुदाय ने कुमाऊं पर अधिकार कर लिया।
खशिया राज लगभग 196 वर्षों तक चला, जिसमें 15 खश शासकों ने शासन किया।
इस काल को कुमाऊंनी कला का स्वर्णकाल माना जाता है, लेकिन प्रशासनिक दृष्टि से यह काल जनता के लिए पीड़ादायक रहा।
वीर चंद (1065–1080 ई.)
लगभग दो शताब्दी बाद, चंद वंश के वीर चंद ने खश राजा सौपाल को हराकर चंद वंश का शासन पुनः स्थापित किया।
इस युद्ध में वीर चंद को सौंण खड़ायन नामक वीर की सहायता मिली, जिसने सौपाल की हत्या की थी।
वीर चंद के समय डोटी (नेपाल) के राजा क्राचलदेव ने 1223 में कुमाऊं पर आक्रमण किया था।
चंपावत के बालेश्वर मंदिर से प्राप्त एक लेख में 10 मांडलिक राजाओं के नाम मिलते हैं।
क्राचलदेव वैराथ वंशीय था और नेपाल के डोटी राज्य के दूलू क्षेत्र का निवासी था। उसने पुरुषोत्तम सिंह को कुमाऊं का सामंत नियुक्त किया था।
नानकी चंद (1117–1195 ई.)
नानकी चंद के शासनकाल की जानकारी गोपेश्वर त्रिशूल लेख से मिलती है।
1191 ई. में जब वैराथ वंशीय शासक अशोक चल्ल ने कुमाऊं पर आक्रमण किया, तब नानकी चंद ही वहां के राजा थे।
बोधगया के शिलालेखों में अशोक चल्ल को खशदेश का राजाधिराज बताया गया है।
थोहर चंद (1261–1275 ई.)
चंद वंश का 23वां शासक थोहर चंद था। कई इतिहासकार जैसे हर्षदेव जोशी, फेजर साहब, यशवंत कठौच और हैमिल्टन उसे चंद वंश का वास्तविक संस्थापक मानते हैं।
गढ़ सारी का ताम्रपत्र और चंद राजवंश की सीरा प्रति में उसका नाम थावर अभय चंद के रूप में दर्ज है।
उसका शासनकाल कुमाऊं के राजनीतिक व सांस्कृतिक पुनरुत्थान का काल था।
History of Uttarakhand in Hindi: उत्तराखंड का इतिहास, एक पौराणिक और ऐतिहासिक यात्रा
त्रिलोक चंद (1296–1303 ई.)
त्रिलोक चंद ने छखाता राज्य पर विजय प्राप्त कर उसे अपने राज्य में मिला लिया था। उन्होंने भीमताल में एक दुर्ग (किला) का निर्माण कराया, जो उस समय की सुरक्षा व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण योगदान था।
अभय चंद (1344–1374 ई.)
चंद वंश का 28वां शासक अभय चंद था, जो इस वंश का प्रथम ऐसा राजा बना, जिसके काल का अभिलेख उपलब्ध है। यह अभिलेख 1317 ई. का है और कुमाऊंनी भाषा में उत्कीर्ण किया गया था। अभय चंद के संबंधी ज्ञानचंद ने उनका वार्षिक श्राद्ध किया।
1360 ई. में अभय चंद ने चंपावत के मानेसर मंदिर में एक भित्ति अभिलेख खुदवाया, जो उनके पुत्र प्राप्ति की खुशी में बनाया गया था। इस अभिलेख की खोज डॉ. रामसिंह ने की थी।
गरुड़ ज्ञान चंद (1374–1419 ई.)
यह चंद वंश का 29वां शासक था और सबसे शक्तिशाली एवं प्रतापी राजाओं में से एक माना जाता है। इसका राजचिह्न “गरुड़” था और इसे फिरोजशाह तुगलक से “गरुड़” की उपाधि प्राप्त हुई थी। ज्ञान चंद विष्णु के गरुड़ रूप के उपासक थे और उन्हें “राजाधिराज महाराज” की उपाधि से भी संबोधित किया जाता था।
फिरोजशाह तुगलक ने तराई-भाभर का क्षेत्र उन्हें सौंपा था। हालांकि, बाद में संभल के नवाब ने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। 1380 ई. में फिरोजशाह तुगलक ने कटेहर के विद्रोही सरदार खड़गू को दबाने के लिए तराई क्षेत्र में अभियान चलाया था, जिसकी जानकारी तारीख-ए-मुबारकशाही नामक ग्रंथ से मिलती है।
राजा ज्ञान चंद ने चंपावत में 1384 ई. का एक ताम्रपत्र उत्कीर्ण कराया जिसमें उन्हें त्रिलोक चंद का पुत्र बताया गया है। इस समय उनके दरबार में सेनापति नीलू कठायत थे, जिन्होंने यवनों को हराकर माल प्रदेश पर अधिकार कर लिया। ज्ञान चंद ने उन्हें ‘कुमय्या खिल्लत’ की उपाधि और रौत भूमि प्रदान की थी।
बाद में नीलू कठायत और जस्सा कमलेखी के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें कठायत के दो पुत्रों की आंखें निकलवाई गईं और अंततः नीलू कठायत की हत्या कर दी गई।
उद्यान चंद (1420–1421 ई.)
हरी चंद के पश्चात उद्यान चंद 31वां शासक बना। यह अपने दादा द्वारा किए गए अन्याय – नीलू कठायत की हत्या और उसके पुत्रों पर अत्याचार – को लेकर ग्लानि महसूस करता था। उसने प्रायश्चित स्वरूप कई मंदिरों और नौलों का निर्माण कराया।
उद्यान चंद ने चंपावत स्थित प्रसिद्ध बालेश्वर मंदिर का निर्माण कराया, हालांकि एक अन्य मान्यता के अनुसार इसका निर्माण 1272 ई. में हुआ था। इस कार्य में गुजरात से आए ब्राह्मण कुंज शर्मा तिवारी और उनके पुत्र शुकदेव ने सहयोग दिया।
विक्रम चंद (1433–1437 ई.)
उद्यान चंद के पश्चात आत्मचंद द्वितीय और हरीचंद द्वितीय राजा बने, जिनके बाद विक्रम चंद शासक बने। उनका एक ताम्रपत्र बालेश्वर मंदिर में मिला है, जो ब्राह्मण कुंच शर्मा के नाम पर है।
विक्रम चंद के समय उनके भतीजे भारती चंद ने खश जाति को संगठित कर विद्रोह किया। इस विद्रोह का नेतृत्व श्री शौड़ करायत कर रहा था। शौड़ करायत ने विक्रम चंद की हत्या कर दी, लेकिन विक्रम चंद ने बदले में उसके पुत्र को महल की दीवार में चुनवाकर मार डाला।
भारती चंद (1437–1450 ई.)
विक्रम चंद के पश्चात भारती चंद शासक बने। वे एक लोकप्रिय, साहसी और सक्षम शासक माने जाते हैं। उन्होंने शौड़ करायत को भाबर में बंदी बना लिया। यही वह शासक था जिसने चंद वंश को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया और डोटी राज्य की अधीनता को अस्वीकार किया।
इसने डोटी के मल्लवंशीय शासक यक्षक मल्ल के विरुद्ध 12 वर्षों तक युद्ध किया और अंततः विजय प्राप्त की। इस युद्ध में कटेहर के राजा ने भारती चंद की सहायता की। भारती चंद ने सोर, सीरा और थल पर अधिकार जमाया और विजय बम जैसे प्रतिद्वंद्वियों को परास्त किया।
नायक जाति की उत्पत्ति
भारती चंद के समय की एक महत्वपूर्ण घटना नायक जाति की उत्पत्ति मानी जाती है। इन्हें चंद सैनिकों और कहकाली (स्थानीय स्त्रियां) के अवैध संबंधों से उत्पन्न संतान माना गया है।
उन्होंने समाज की सभी जातियों को मिलाकर एक सैन्य कटक (सेना) तैयार की थी। लोककथाओं और जागरों में भारती चंद और वीरांगना भागाधौन्यान के द्वंद्व युद्ध का भी वर्णन मिलता है।
भारती चंद ने 1447 ई. में जोग मेहरा को मरणोपरांत ‘रौत’ की उपाधि और भूमिदान दिया। उन्होंने जीवनकाल में ही अपने पुत्र रत्न चंद को गद्दी सौंप दी थी। उनके तीन पुत्र थे – रत्न चंद, सुजान कुंवर और पर्वत चंद। पिथौरागढ़ के हुड़ेती से प्राप्त ताम्रपत्र उनके शासनकाल का प्रमाण है।
रत्न चंद (1450–1488 ई.)
रत्न चंद भारती चंद के सबसे योग्य पुत्र थे। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर भारती चंद ने चौगर्खा परगना उन्हें रौत में दिया और जीवित रहते ही उन्हें गद्दी सौंप दी। रत्न चंद ने डोटी के राजा नाग मल्ल और सोर के बम राजा को पराजित किया।
बम राजा बैलोर कोट में रहता था और उसने सौर क्षेत्र में ‘एक-धार-में-का नौला’ का निर्माण कराया था। घोड़साल में बम राजा अपने घोड़ों को प्रशिक्षित करता था।
कीर्ति चंद (1488–1503 ई.) – चंद वंश का एक पराक्रमी शासक
कीर्ति चंद के शासन काल में चंद राज्य ने शक्ति और विस्तार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति की। उनके काल में डोटी राज्य ने स्वतंत्र होने का प्रयास किया, परंतु यह प्रयास असफल रहा।
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कीर्ति चंद ने बारामण्डल और विसौद (अल्मोड़ा) को अपने अधिकार में ले लिया।
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उन्होंने खगमरा कोट और स्यूनरा (अल्मोड़ा) को भी चंद राज्य में सम्मिलित कर लिया।
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फाल्दाकोट पर विजय प्राप्त कर उन्होंने वहाँ के खाती जाति के राजा को पराजित किया।
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उनके शासन काल तक कुमाऊँ का अधिकांश भाग चंद साम्राज्य में सम्मिलित हो चुका था।
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उन्होंने 1491 ई. में जसपुर (ऊधम सिंह नगर) के पास कीर्तिनगर नामक नगर की स्थापना की।
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कीर्ति चंद ने अजयपाल से युद्ध कर उसे पराजित किया।
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वे गढ़वाल पर आक्रमण करने वाले पहले चंद शासक भी थे।
कीर्ति चंद के बाद चंद वंश में प्रताप चंद, तारा चंद, मानिक चंद, कल्याण चंद, पूर्ण चंद और भीष्म चंद जैसे शासकों ने राज्य की बागडोर संभाली।
भीष्म चंद (1555–1560 ई.) – चंपावत से शासन करने वाले अंतिम चंद शासक
भीष्म चंद चंद वंश के 43वें शासक थे। उनके शासनकाल के दौरान कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं, जिनमें सबसे उल्लेखनीय थी खवास खां का उत्तराखण्ड में शरण लेना। खवास खां, जो इस्लाम शाह सूरी का शत्रु था, ने उत्तराखंड में भीष्म चंद के समय शरण ली थी। इस घटना का उल्लेख प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ ‘तारीख-ए-दाउदी’ में श्री अब्दुल्ला द्वारा किया गया है।
भीष्म चंद ने अपनी राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा स्थानांतरित करने की योजना बनाई और अल्मोड़ा में खगमरा किले की स्थापना की। लेकिन इससे पहले ही उनका रामगढ़ (गागर के पास, नैनीताल) में षड्यंत्र के तहत हत्या कर दी गई।
उनकी हत्या गजुवाठिंगा नामक एक खशिया मुखिया द्वारा की गई थी। उस समय भीष्म चंद का पुत्र कल्याण चंद डोटी राज्य में एक विद्रोह को शांत करने गया हुआ था। पिता की हत्या की खबर पाते ही उसने डोटी राज्य से समझौता कर लिया और लौटकर गजुवाठिंगा की हत्या कर अपने पिता की मौत का बदला लिया।
भीष्म चंद, चंपावत से शासन करने वाले अंतिम चंद नरेश थे। उनके बाद बालो कल्याण चंद ने 1563 ई. में राजधानी को अल्मोड़ा में स्थानांतरित किया और नगर का नाम ‘आलमनगर’ रखा। यह नाम उन्होंने मुगल बादशाह औरंगज़ेब को प्रसन्न करने के उद्देश्य से रखा था। यह नया नगर खशिया डांडा क्षेत्र में स्थित था।
बाद में, 1813 ई. में महाराजा सुदर्शन शाह द्वारा अल्मोड़ा नगर का मानचित्र तैयार करवाया गया, जिसमें नगर के प्रमुख स्थलों को दर्शाया गया।
बालोकल्याण चंद (1560–1568 ई.)
भीष्म चंद की मृत्यु के बाद चंद वंश की सत्ता बालोकल्याण चंद को मिली। इतिहासकारों के अनुसार वह ताराचंद का पुत्र था, जिसे भीष्म चंद ने गोद लिया था।
1563 ई. में बालोकल्याण चंद ने चंपावत की बजाय अल्मोड़ा को राजधानी बना दिया, जो चंद वंश के अंत तक बनी रही।
उसके शासनकाल में:
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मल्ला महल और लाल मंडी (फोर्ट मोयरा) का निर्माण किया गया (हालाँकि कुछ इतिहासकार मल्ला महल का निर्माण रूद्र चंद से जोड़ते हैं)।
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दानपुर पर चढ़ाई कर उसे अपने राज्य में मिलाया।
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उसकी सीमा भोट (तिब्बत सीमा) से जुड़ गई।
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शोभा मल्ल ने अपनी पुत्री का विवाह बालोकल्याण चंद से किया और सोर क्षेत्र दहेज में दिया, जबकि सीरा देने से इनकार कर दिया।
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गंगोली (पिथौरागढ़) पर भी विजय प्राप्त की और मणकोटी वंश के राजा नारायण चंद को हराकर उसे अपने अधीन कर लिया।
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मणकोटी के उप्रेती और पंत परिवारों को प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया।
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गजुवा की हत्या कर भीष्म चंद की मृत्यु का बदला लिया (1560 में)।
रूद्र चंद (1568–1597 ई.)
बालोकल्याण चंद के बाद उसका पुत्र रूद्र चंद राजा बना। वह चंद वंश का सबसे योग्य, शिक्षाप्रेमी और दानी शासक माना जाता है।
उसके शासनकाल की प्रमुख घटनाएँ:
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हुसैन खाँ कांठ और गोला नवाब के आक्रमणों से तराई की रक्षा की (1568 और 1575 में)।
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प्रारंभ में स्वतंत्र रहा लेकिन 1587 में अकबर की अधीनता स्वीकार की और 1588 में लाहौर जाकर अकबर से भेंट की। उसे याक, कस्तूरी मृग की खाल भेंट की गई।
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तुजुक-ए-जहाँगीरी में इस घटना का उल्लेख है।
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नागौर की लड़ाई (1570) में अकबर का साथ दिया और ईनाम में चौरासी माल की जागीर मिली।
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रूद्रपुर नगर और अटरिया देवी मेला की स्थापना की।
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मल्ला महल और बालेश्वर मंदिर (थल) का निर्माण करवाया।
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संस्कृत शिक्षा के लिए कश्मीर और काशी युवाओं को भेजा, संस्कृत स्कूल की शुरुआत की।
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त्रैवेणिक धर्म निर्णय और ऊषा रूद्रगोदया नामक धार्मिक ग्रंथ तैयार करवाए।
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ब्राह्मणों के कई वर्ग बनाए – चौथानी, ओली, हलिए, पितलिए, आदि।
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प्रशासनिक पद तय किए – वैद्य, पुरोहित, बाजदार, टम्टा, आदि।
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शूद्र वर्ग को “पौड़ी-पन्द्रह बिस्वा” कहा गया।
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श्येन शास्त्र और ययाति चरित्रम् की रचना करवाई।
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1581 में सीरा का युद्ध जीतकर अस्कोट, दारमा और जोहार को राज्य में मिलाया।
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युद्ध में सेनापति पुरुषोत्तम पंत की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
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बधाणगढ़ का युद्ध (1581) बलभद्र शाह और सुकाल देव के साथ हुआ जिसमें रूद्र चंद ने जीत हासिल की।
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रामदत्त पंडित की सलाह पर बालेश्वर मंदिर (चंपावत) का निर्माण करवाया।
लक्ष्मी चंद (1597–1621 ई.)
रूद्र चंद के बाद उसका पुत्र लक्ष्मी चंद राजा बना।
उसे विभिन्न शिलालेखों में लछिमीचंद, लछिमन चंद और लक्ष्मण कहा गया है। उसके 22 पुत्र थे।
उसके शासन की प्रमुख बातें:
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गढ़वाल पर 7 बार आक्रमण, लेकिन सभी बार असफल रहा।
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8वें आक्रमण में सेनापति गैंडा के नेतृत्व में सफलता मिली।
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इस हार-जीत के कारण लोगों ने अल्मोड़ा के किले को स्यालबुंगा कहा (मतलब “बिल्ली जैसा डरपोक”)।
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दिल्ली के मुगल शासकों के प्रति आज्ञाकारी रवैया, इसीलिए “लखुली बिराली” (डरी हुई बिल्ली) की उपाधि मिली।
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जहाँगीर से भेंट की, जिसका उल्लेख “जहाँगीरनामा” में है। पहाड़ी राजा द्वारा घोड़े, बाज, तलवारें, हिरन की खालें तोहफे में दी गई थीं।
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1602 में बागनाथ मंदिर (बागेश्वर) का पुनर्निर्माण करवाया।
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नए बगीचे और खतडुआ त्योहार की शुरुआत की।
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उसका बड़ा भाई शक्ति गुंसाई अंधा था लेकिन प्रशासन उसी के हाथ में था, जिसे उत्तराखंड का धृतराष्ट्र कहा जाता है।
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दारमा घाटी, सीमाओं और प्रशासनिक व्यवस्था का पुनर्गठन किया।
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बंदोबस्ती कार्यालय और भूमि नाप कार्यालय की स्थापना की।
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भूमि करों के रूप में ज्यूला, सिरती, बैकर, कूत, भात आदि लगाए।
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कोटयाल नामक स्थान पर उपहार और भेंट संग्रह की व्यवस्था की।
दिलीप चंद (Dilip Chand) (1621–1624 ई.)
लक्ष्मीचंद के उत्तराधिकारी के रूप में दिलीप चंद कुमाऊँ की गद्दी पर विराजमान हुए। हालांकि, उनका शासनकाल बहुत छोटा रहा क्योंकि वे क्षय (टीबी) रोग के कारण अल्पायु में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए।
विजय चंद (Vijay Chand) (1624–1625 ई.)
दिलीप चंद के बाद विजय चंद राजा बने। उन्होंने अनूपशहर (आधुनिक बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश) के एक बड़गूजर कुल की कन्या से विवाह किया। चंद वंश की परंपरा के अनुसार बड़गूजरों से वैवाहिक संबंध स्वीकार्य नहीं थे, जिससे राजपरिवार और दरबार में भारी अशांति फैल गई।
राज्य की असली बागडोर उस समय तीन प्रभावशाली दरबारियों — सुखराम कार्की, पीरू गुसाईं और विनायक भट्ट — के हाथों में थी। इन तीनों ने आम जनता पर अत्याचार किए। अंततः सुखराम कार्की ने ही विजय चंद की हत्या कर दी।
विजय चंद के विरोध में लक्ष्मीचंद के पुत्र कुंवर नीला गुसाईं ने आवाज़ उठाई। प्रतिक्रिया में, उनकी आंखें निकाल दी गईं। आगे चलकर, नीला गुसाईं के पुत्र ही प्रसिद्ध राजा बाजबहादुर चंद बने। विजय चंद ने नैनीताल स्थित मल्ला महल का दरवाजा बनवाया था, जो आज भी उनके शासन की स्मृति है।
त्रिमल चंद (Trimal Chand) (1625–1638 ई.)
त्रिमल चंद को गडयूड़ा ताम्रपत्र में ‘महाराजकुमार’ या युवराज के रूप में उल्लेखित किया गया है। गढ़वाल नरेश श्याम शाह की सहायता से मेहरा दल ने त्रिमल चंद को कुमाऊँ की गद्दी पर बैठाया।
गद्दी पर आते ही त्रिमल चंद ने न्याय और प्रतिशोध का परिचय दिया:
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उन्होंने सुखराम कार्की को मरवा डाला।
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विनायक भट्ट की आंखें निकलवा दीं और उनकी संपत्ति अपने गुरु श्री माधव पंडित को समर्पित कर दी।
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पीरू गुसाईं इस अपमान और भय से त्रस्त होकर प्रयाग (आधुनिक प्रयागराज) चले गए, जहाँ उन्होंने आत्महत्या कर ली।
त्रिमल चंद ने छखाता क्षेत्र के ध्यानीरौ के खशों द्वारा किए गए विद्रोह को भी सफलतापूर्वक दबाया। उनके शासन की वीरता और न्यायप्रियता के कारण आज भी उनके पंवाड़े (लोकगीत) गाए जाते हैं।
विशेष टिप्पणी:
चंद वंश में “लल्ला” या “गुसाईं” शब्दों का प्रयोग छोटे राजकुमारों के लिए किया जाता था। यह संबोधन सम्मानसूचक माना जाता था।
बाजबहादुर चंद (1638–1678 ई.) – कुमाऊं का बलबन
प्रारंभिक जीवन और सत्ता ग्रहण
बाजबहादुर चंद, चंद वंश के एक प्रतापी शासक थे, जिनका शासनकाल मुग़ल सम्राट शाहजहाँ (1628–1658 ई.) के समकालीन था। गद्दी संभालते ही उन्हें दिल्ली जाकर शाहजहाँ को कस्तूरी, गजगाह, घोड़े, सोने-चांदी के बर्तन आदि भेंट स्वरूप ले जाने पड़े, क्योंकि नौलखिया माल और चौरासी माल (तराई क्षेत्र) पर कटेहारी राजपूतों ने कब्जा कर लिया था, जो सीधे तौर पर शाहजहाँ की कृपा पर निर्भर थे।
राजनीतिक संघर्ष और दिल्ली दरबार से संबंध
चौरासी कोष के भूभाग से चंद वंश को लगभग 9 लाख रुपये की वार्षिक आय होती थी। यह क्षेत्र हाथ से निकलने पर राज्य की आर्थिक स्थिति चरमरा गई थी। शाहजहाँ ने बाजबहादुर को पुनः कटेहर का राज्य सौंपा और गढ़वाल युद्ध में सहायता के बदले ‘बहादुर’ और ‘जमींदार’ की उपाधियाँ प्रदान कीं। उन्हें दिल्ली दरबार में नक्कारा बजाने की अनुमति भी मिली। मुरादाबाद के सुबेदार रुस्तम खाँ ने इस विजय में बाजबहादुर की सहायता की।
सैन्य अभियानों और स्थापत्य कार्यों की झलक
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बाजबहादुर का वास्तविक नाम बाजा गुसाईं था।
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उन्होंने पंवार राज्य पर आक्रमण कर वहां से नन्दा देवी की मूर्ति जीत के प्रतीक के रूप में अल्मोड़ा के किले में स्थापित की।
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उन्होंने भोटियों और हूणों को ‘सिरती’ नामक कर देने को बाध्य किया।
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‘थल’ में ‘एक हथिया देवाल’ का निर्माण कराया, जिसकी बनावट एलोरा के कैलाश मंदिर जैसी थी।
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1670 में तिब्बत अभियान चलाया और मानसरोवर यात्रा में बाधा डालने वाली हूण जनजाति को हराकर ताकलाखाल का किला जीत लिया।
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1673 में कैलाश-मानसरोवर यात्रियों के लिए गूंठ भूमि का दान दिया।
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1674 में व्यास घाटी को चंद राज्य में मिला लिया।
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घोड़ाखाल मंदिर और भीमेश्वर महादेव मंदिर (भीमताल), पीनाथ महादेव मंदिर (कौसानी) और कटारमल सूर्य मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।
प्रसिद्ध युद्ध – कत्यूरी राजवंश के साथ संघर्ष
बाजबहादुर ने कत्यूरी राजकुमारों के गढ़ ‘मानिला’ पर हमला किया और उन्हें गढ़वाल की ओर खदेड़ दिया। बदले में कत्यूरी राजकुमारों ने गढ़वाल के पूर्वी हिस्से में लूटपाट शुरू की, जिसका प्रतिकार रावत थोकदार भूपसिंह गोला और उनकी पुत्री तीलू रौतेली ने किया।
वीरांगना तीलू रौतेली – गढ़वाल की झांसी की रानी
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जन्म: 8 अगस्त 1661, गुराड़ गांव, पौड़ी
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माता: मैणा देवी, घोड़ी का नाम: बिंदुली
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बचपन का नाम: तिलोतमा
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प्रसिद्ध सहेलियाँ: बेल्लु व देवली
तीलू रौतेली ने मात्र 15 से 22 वर्ष की उम्र में 7 युद्ध लड़े। जब उनके पिता और भाई युद्ध में मारे गए, तब उन्होंने गढ़वाल की जातियों (नेगी, अस्वाल, सजवाण, रावत) को संगठित कर गुरिल्ला युद्ध नीति से कत्यूरियों को पराजित किया।
अंत में वे बीरोंखाल के पूर्वी नयार नदी में स्नान करते समय रामू रजवार द्वारा पीठ पीछे तलवार से मारी गईं।
सम्मान और स्मृतियाँ
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उत्तराखंड सरकार द्वारा 2006 से ‘तीलू रौतेली पुरस्कार’ शुरू किया गया जिसमें ₹21,000 व प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है।
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1 अप्रैल 2014 से दिव्यांग महिलाओं के लिए ‘तीलू रौतेली पेंशन योजना’ शुरू हुई – ₹800 प्रतिमाह।
प्रशासनिक कार्य और सामाजिक सुधार
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बाजपुर (ऊधमसिंह नगर) की स्थापना 1664 ई. में की।
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शासन को प्रभावी बनाने के लिए तराई क्षेत्र को पट्टियों व ग्रामों में बाँटा।
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मुगल दरबार की तर्ज़ पर चंद दरबार को सजाया और नए पद सृजित किए:
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पनेरू – पानी लाने वाला
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फुलेरिया – फल लाने वाला
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हर बोला – सुबह “हर हर” कहकर राजपरिवार को जगाने वाला
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मठपाल – मंदिरों की रक्षा करने वाला
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साहित्यिक योगदान और धार्मिक विश्वास
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अनंतदेव ने इनके संरक्षण में ‘स्मृति कौस्तुभ’ ग्रंथ की रचना की।
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बाजबहादुर स्वयं को भगवान नारायण का स्वरूप मानते थे।
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अंतिम समय में उनकी लोकप्रियता घट गई थी – इस पर एक कहावत प्रसिद्ध है:
“बरस भयो अस्सी, बुद्धि गई नस्सी।”
अन्य महत्वपूर्ण घटनाएँ
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सुलेमान शिकोह, औरंगज़ेब से विवाद में फँसे शाहजहाँ के पोते, बाजबहादुर के दरबार में आए। परंतु औरंगज़ेब से मित्रता के कारण उन्हें शरण नहीं दी गई।
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दिल्ली में औरंगज़ेब के पास दो राजदूत भेजे गए: पर्वत सिंह गुसाईं और विश्वरूप पांडे (राजगुरु)।
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काशीपुर के संस्थापक काशीनाथ अधिकारी, बाजबहादुर के अधीनस्थ थे।
उपाधियाँ और विरासत
बाजबहादुर चंद को “कुमाऊं का बलबन” कहा जाता है। वे एक शक्तिशाली, प्रशासनिक दृष्टि से कुशल, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से जागरूक शासक थे, जिन्होंने कुमाऊं की राजनीति, संस्कृति और स्थापत्य को नई दिशा दी।
उद्योत चंद (1678–1698 ई.) – कुमाऊँ का वीर और धार्मिक शासक
बाजबहादुर चंद की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र उद्योत चंद 1678 ईस्वी में कुमाऊँ की गद्दी पर आसीन हुआ। वह एक कुशल योद्धा, दूरदर्शी प्रशासक और धार्मिक भावना से ओत-प्रोत राजा था। उसका शासनकाल युद्धों, मंदिर निर्माण और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए जाना जाता है।
धार्मिक कार्य और मंदिर निर्माण
उद्योत चंद ने अपने शासनकाल में अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण कराया, जिनमें प्रमुख हैं –
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उद्योत चन्द्रेश्वर मंदिर
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पार्वतीश्वर मंदिर
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त्रिपुरा देवी मंदिर
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विष्णु मंदिर
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शुकेश्वर महादेव मंदिर
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सोमेश्वर महादेव मंदिर
इसके अलावा उसने कोटा भाभर (तराई क्षेत्र, काशीपुर) में आम के बगीचे भी लगवाए, जिससे कृषि और उद्यान व्यवस्था को बढ़ावा मिला। बरम (मुवानी-पिथौरागढ़) क्षेत्र से उसका एक ताम्रपत्र भी प्राप्त हुआ है, जो उसके प्रशासनिक कार्यों का प्रमाण है।
सैन्य विजय और युद्ध
राज्य की बागडोर संभालते ही उद्योत चंद ने सैन्य अभियान चलाया और पंवार राज्य के बधाणगढ़ पर आक्रमण कर 1678 ईस्वी में उसे जीत लिया। इस युद्ध में उसका प्रसिद्ध सेनापति मैसी साहू वीरगति को प्राप्त हुआ।
अगले वर्ष 1679 में उद्योत चंद ने गढ़वाल पर पुनः आक्रमण किया और चांदपुर गढ़ पर विजय प्राप्त की। परंतु 1680 ईस्वी में गढ़वाल नरेश फतेहपतिशाह और डोटी नरेश देवपाल ने एक साथ मिलकर उद्योत चंद के राज्य पर पूर्व और पश्चिम से आक्रमण कर दिया।
उद्योत चंद ने दोनों शासकों को पराजित कर अपनी सीमा से बाहर खदेड़ दिया और सुरक्षा हेतु ब्रह्मदेव, द्वाराहाट, चंपावत तथा सौर में सैन्य छावनियां स्थापित कीं।
अजमेरगढ़ और डोटी विजय
1682 ईस्वी में, दोनों राजाओं को हराने के पश्चात उद्योत चंद ने प्रयागराज के रघुनाथपुर घाट में स्नान किया। इस दौरान डोटी नरेश देवपाल ने फिर से काली कुमाऊँ पर अधिकार कर लिया।
उद्योत चंद ने तुरंत प्रतिक्रिया दी और चंपावत की ओर प्रस्थान किया। उसके आने की सूचना पाकर देवपाल अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी अजमेरगढ़ की ओर भाग गया। उद्योत चंद ने अजमेरगढ़ पर आक्रमण कर लूटपाट की और 1683 में वहां अधिकार कर लिया।
यह विजय विशेष थी, क्योंकि भारती चंद के बाद उद्योत चंद ही एक ऐसा राजा था जिसने नेपाल पर आक्रमण कर वहां की ग्रीष्मकालीन राजधानी अजमेरगढ़ पर अधिकार किया। इस युद्ध में उसका सेनापति हिरू देउबा मारा गया।
मंदिर निर्माण की परंपरा
उद्योत चंद और उसके पुत्र ज्ञानचंद ने अपने शासनकाल में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया, जिन्हें “देवल” या “द्यौल” कहा जाता था। प्रमुख मंदिर स्थल थे –
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देवस्थल
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चौपाता
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नकुलेश्वर
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कासनी
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मर्सोली
ज्ञानचंद ने कत्यूर घाटी में बद्रीनाथ मंदिर की स्थापना की और बैजनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार भी किया।
Uttarakhand Ke Mandiro Ki Shaili | उत्तराखंड के मंदिरों की शैली
डोटी पर पुनः आक्रमण (1704 ई.)
अपने पिता की हार का बदला लेने के लिए ज्ञानचंद ने 1704 ईस्वी में डोटी पर आक्रमण किया। यह युद्ध भावर क्षेत्र में लड़ा गया। यद्यपि डोटी नरेश युद्धभूमि से भाग गया, लेकिन कुमाऊँ की सेना मलेरिया के प्रकोप से पीड़ित हो गई।
उद्योत चंद केवल एक विजेता नहीं था, वह धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी एक महान शासक था। उसके द्वारा बनवाए गए मंदिर आज भी कुमाऊँ की कला, आस्था और इतिहास के साक्ष्य हैं। उसकी वीरता, दूरदर्शिता और समर्पण ने कुमाऊँ को एक सशक्त राज्य के रूप में स्थापित किया।
जगतचंद (1708-1720 ई.)
ज्ञानचंद के बाद जगतचंद गद्दी पर बैठा। उसके शासनकाल में तराई भाभर क्षेत्र से लगभग 9 लाख रूपये की वार्षिक आय प्राप्त होती थी। वह केवल 12 वर्षों तक शासनरत रहा। जगतचंद एक अत्यंत मिलनसार शासक था, जिससे जनता में उसकी अपार श्रद्धा थी। विद्वानों ने उसके काल को कुमाऊं का स्वर्ण युग कहा है।
1709 ई. में उसने गढ़ राज्य के लोहाबागढ़ और बधानगढ़ पर सफल आक्रमण किया। इसके बाद उसने श्रीनगर की ओर रुख किया और उसे भी विजय किया। इस परास्त होकर गढ़नरेश फतेहपतिशाह देहरादून की ओर भाग गया। जगतचंद ने गढ़वाल से भारी मात्रा में धन लूटकर गरीबों में वितरित किया और कुछ धन मुगल सम्राट मुहम्मदशाह के दरबार में भेजा। उसने मुगल बादशाह बहादुरशाह को भी बहुमूल्य उपहार भेंट किए।
जगतचंद ने जुआरियों पर कर लगाया जिसे ‘जुआ की वांच’ कहा जाता था। उसका शासन काल चंद राजाओं में सबसे अधिक समृद्ध और उत्कर्ष का माना जाता है। उसकी मृत्यु चेचक रोग से हुई थी, कुछ विद्वान इसे शीतलादेवी के प्रकोप से भी जोड़ते हैं, जिन्हें चेचक की देवी कहा जाता है।
श्री सूरसिंह ऐड़ी उसके दरबार में बख्सी (सेनापति) थे। जगतचंद ने 1000 गायों का दान किया जिसे ‘गोसहस्त्रदान’ कहा जाता है। उसके समय दो महत्वपूर्ण ग्रंथ – ‘जगतचन्द्रिका’ और ‘टीका दुर्गा’ लिखे गए।
देवी सिंह (1720-1726 ई.)
जगतचंद के बाद उसके पुत्र देवीचंद ने गद्दी संभाली। बरम ताम्रपत्र में उसे महाराज कुमार श्री देवी सिंह गुसाई और झिझाड़ ताम्रपत्र में महाराज कुमार श्री देवीसिंह गुसाईं ज्यू कहा गया है। उसे विरासत में विशाल धन-संपदा प्राप्त हुई थी।
कहा जाता है कि वह कुमाऊं का विक्रमादित्य बनने की इच्छा में राजकोष का उपयोग चाटुकारों को दक्षिणा देने में कर गया, इसलिए उसे चंद वंश का ‘मुहम्मद बिन तुगलक’ कहा जाता है। ऐटकिंशन ने भी उसे इसी उपनाम से पुकारा था।
देवीचंद ने ‘लक्ष्य होम’ और ‘कोटि होम’ नामक यज्ञ संपन्न किए। 1723 में उसने गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह के साथ दो युद्ध लड़े — रणचूला का युद्ध जिसमें गढ़वाली सेना हारी, और गड़ाई गंगोली का युद्ध जिसमें गढ़वाली सेना विजयी हुई।
गैंड़ा बिष्ट (मानिकमल) और उसके पुत्र पूरनमल के कहने पर देवीचंद दिल्ली पर भी आक्रमण कर बड़ा धन बर्बाद किया। इस कारण एटकिंशन और रूद्रदत्त पंत ने उसे पागल शासक और कुमाऊं का मुहम्मद बिन तुगलक कहा। अंततः उसकी हत्या गैंड़ा बिष्ट, पूरनमल और रणजीत पतौलिया ने कर दी।
देवीचंद ने भी 1000 गायों का दान किया था।
अजीत चंद (1726-1729 ई.)
अजीतचंद के शासनकाल में पूरनमल और उसके पिता मानिकचंद गैड़ा बिष्ट ने मनमानी की, इसलिए इस समय को कुमाऊं के इतिहास में ‘गैड़ागर्दी’ के नाम से जाना जाता है। अजीतचंद नरपत सिंह कठेड़िया का पुत्र था।
रोहिलखंड के पिपली के राजा नरपत सिंह कठेड़िया का विवाह ज्ञानचंद की पुत्री से हुआ था, और उनका पुत्र अजीतचंद ही अजीत चंद के नाम से गद्दी पर बैठा। उसकी हत्या पूरनमल और मानिकचंद ने की।
कल्याण चंद चतुर्थ (1729-1747 ई.)
कल्याण चंद के समय कुमाऊं पर रोहेलों का आक्रमण हुआ। कुमाऊं के हिम्मत सिंह रौतेला रोहेल सरदार मुहम्मद अली खां के पास शरण लेने गए थे, लेकिन कल्याण चंद ने उन्हें मार दिया।
1743-44 में रोहेलखंड के सरदार अली मुहम्मद खां और अवध के नवाब मंसूर अली खां ने कुमाऊं पर आक्रमण किए और कुछ क्षेत्र जीत लिए। कल्याण चंद भागकर गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह के पास चले गए। प्रदीपशाह ने उसकी सहायता के लिए सेना भेजी, लेकिन दूनागिरी के युद्ध में रोहिले विजयी हुए और तीन लाख रुपये की मांग की।
इस युद्ध में पहली बार कुमाऊं और गढ़वाल की सेनाएं एक साथ लड़ीं। रोहेलों ने अल्मोड़ा जीतकर भारी तबाही मचाई।
कल्याण चंद पारिवारिक कलह के कारण नेपाल भाग गए, जिन्हें बाद में अनूप सिंह तड़ागी कुमाऊं लेकर आए और राजा बनाया। 1745 में रोहिले नजीब खां के नेतृत्व में दूसरा आक्रमण किया गया, जिसमें रोहिले हारे।
कल्याण चंद के दिवान शिवदेव जोशी थे, जिन्हें बाद में ‘कुमाऊं का बैरमखां’ कहा गया। कल्याण चंद ने अंतिम समय में शिवदेव जोशी को अपने पुत्र दीपचंद का संरक्षक नियुक्त किया।
उनके शासनकाल में कवि शिव ने ‘कल्याणचन्द्रोदयं’ रचा। कल्याण चंद ने अल्मोड़ा में चौमहल भी बनवाया।
प्रदीपशाह ने अपने दो वकील श्री बंधु मित्र और लक्ष्मीधर ओझा को कल्याणचंद के दरबार में भेजा था।
दीपचंद (1748-1777 ई.)
राजा दीपचंद के अवयस्क होने के कारण राज्य की वास्तविक सत्ता शिवदेव जोशी के हाथ में थी। शिवदेव जोशी को ‘कुमाऊं का बैरमखां’ कहा गया। उनकी मृत्यु काशीपुर में हुई।
शिवदेव जोशी की मृत्यु के बाद दीपचंद हर्षदेव जोशी को दिवान बनाना चाहते थे। दीपचंद की प्रियरानी श्रृंगार मंजरी थी, जिसका प्रेमी परमानंद बिष्ट था। श्रृंगार मंजरी अपने रिश्तेदार मोहन सिंह रौतेला को दिवान बनाना चाहती थी।
मोहन सिंह रौतेला ने चालाकी से हर्षदेव जोशी के भाई जयकृष्ण जोशी की हत्या करवाई और हर्षदेव जोशी व राजा दीपचंद को कैद कर लिया।
1777 के अंत में राजा दीपचंद और उनके दो पुत्रों को सीराकोट के किले में मार दिया गया।
दीपचंद को कुमाऊं का शाहजहां भी कहा जाता है। उसके शासनकाल में कई महत्वपूर्ण युद्ध हुए जैसे:
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प्लासी का युद्ध (1757 ई.)
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पानीपत का तीसरा युद्ध (1761 ई.)
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बक्सर का युद्ध (1764 ई.)
तीसरे पानीपत युद्ध में चंद सेना ने रोहेलखंड के सेनापति हाफिज रहमत खां के साथ मिलकर अफगानों का समर्थन किया था। सेना का नेतृत्व सेनापति हरिराम और उपसेनापति बीरबल नेगी ने किया।
हैमिल्टन ने अपनी पुस्तक ‘किंगडम ऑफ नेपाल’ में दीपचंद को ‘गूंगा शासक’ कहा है।
मोहनचंद (1777-1779 ई.)
सन् 1779 में मोहनचंद और ललितशाह के बीच बग्वालीपोखर का युद्ध हुआ, जिसमें ललितशाह विजयी रहे। इस युद्ध में हारकर मोहनचंद भाग गया।
प्रद्युम्न चंद (1779-1786 ई.)
प्रद्युम्न चंद एकमात्र शासक थे जिन्होंने एक साथ गढ़वाल और कुमाऊं दोनों पर शासन किया। ललितशाह ने हर्षदेव जोशी की सलाह पर अपने पुत्र प्रद्युम्न शाह को प्रद्युम्न चंद के नाम से कुमाऊं का शासक घोषित किया। 1779 के बाद कुमाऊं गढ़राज्य का अधीनस्थ राज्य बन गया।
मोहनचंद (1786-1788 ई.)
मोहनचंद और प्रद्युम्न शाह के बीच कई युद्ध हुए। 1786 में मोहनचंद ने पुनः कुमाऊं की गद्दी पाने का प्रयास किया और पाली ग्राम (नैथड़ागढ़ी) के युद्ध में जीत हासिल की, जिससे हर्षदेव जोशी भागकर श्रीनगर चला गया। लेकिन 1788 में हर्षदेव जोशी ने मोहन सिंह और उसके पुत्र बिशन सिंह की हत्या कर दी। मोहनचंद ऐसे शासक थे जिन्होंने दो बार कुमाऊं की गद्दी पर कब्जा किया।
शिवचंद (1788 ई.)
1788 में हर्षदेव जोशी ने शिवचंद को राजा बनाया। इसके बाद मोहनचंद के भाई लाल सिंह ने शिवचंद पर हमला किया और शिवचंद हार गया। हर्षदेव जोशी गढ़वाल चले गए। इसके बाद लाल सिंह ने अपने भाई मोहनचंद के पुत्र महेन्द्रचंद को शासक बनाया।
महेन्द्रचंद (1788-1790 ई.)
महेन्द्रचंद के शासनकाल में गोरखा नरेश रण बहादुर की सेना ने कुमाऊं पर आक्रमण किया। 1790 में हवालबाग (अल्मोड़ा) के युद्ध में महेन्द्रचंद पराजित हो गए। इस प्रकार चंद वंश का अंत हो गया और गोरखा शासन कुमाऊं व गढ़वाल दोनों पर स्थापित हो गया, जो 1815 तक रहा। गोरखाओं को कुमाऊं पर आक्रमण का न्यौता हर्षदेव जोशी ने दिया था।
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