
Gorkha rule in Uttarakhand in Hindi: जानें उत्तराखण्ड में गोरखाओं का शासन का इतिहास
Gorkha rule in Uttarakhand in Hindi: गोरखों के आक्रमण के समय कुमाऊँ की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति अत्यंत दुर्बल थी। जनवरी 1790 में, हस्तिदल चौतररिया (चौतरिया बहादुरशाह), काजी जगजीत पाण्डे, सेनापति अमरसिंह थापा और शूरवीर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखा सैनिकों ने काली नदी पार कर कुमाऊँ पर दो दिशाओं से आक्रमण किया। उस समय नेपाल का शासक रणबहादुर शाह था, जो 1778 में केवल तीन वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठा था। उसकी देखरेख महारानी राजेन्द्र लक्ष्मी (या इन्द्रलक्ष्मी) ने की थी। बाद में रणबहादुर साधु बन गया और उसने स्वामी निर्गुणानंद नाम धारण कर लिया। उसी के शासनकाल में नेपाल में पहली बार सोने की मुद्रा प्रचलित की गई।
गोरखा सेनाओं की कुमाऊँ में चढ़ाई
गोरखों का एक दल झूलाघाट होते हुए सोर, गंगोलीहाट और सेराघाट की ओर बढ़ा, जबकि दूसरा दल बिसुंग के रास्ते सीधे अल्मोड़ा की ओर बढ़ा। महेन्द्रचंद ने गोरखा सेनाओं को रोकने का प्रयास किया और गंगोली की ओर कूच किया, लेकिन यह कोशिश सफल नहीं रही। महेन्द्रचंद के चाचा लाल सिंह एक सैन्य टुकड़ी के साथ काली कुमाऊँ की ओर बढ़े और आरंभ में उन्होंने अमरसिंह थापा की सेना को पीछे हटने के लिए विवश कर दिया।
लेकिन गैतोड़ा गाँव में गोरखों ने लाल सिंह की सेना को घेर लिया और 200 से अधिक सैनिकों की हत्या कर दी, जिससे लाल सिंह को मैदान की ओर भागना पड़ा। महेन्द्रचंद ने लाल सिंह की सहायता के लिए प्रयास किया, लेकिन वह भी पराजित होकर कोटाबाग की ओर भाग गया, जहाँ दोनों की भेंट हुई।
अल्मोड़ा पर गोरखों का अधिकार
गोरखा सेनाएं निर्भय होकर अल्मोड़ा की ओर बढ़ीं और अंततः 1790 में उन्होंने अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया। इस दौरान हर्षदेव जोशी भी गोरखा पक्ष में शामिल था। अल्मोड़ा में गोरखों ने दमनात्मक नीतियाँ अपनाईं जिससे पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में आतंक फैल गया।
गोरखा केवल दो ब्राह्मण समुदायों – पाण्डे और उपाध्याय – को मान्यता देते थे। कुमाऊँ पर उनका शासन 1790 से 1815 तक चला। यह शासन नेपाल के अधीन था, परंतु प्रांत स्तर पर शासन संचालन के लिए वे एक गवर्नर नियुक्त करते थे, जिसे “सूब्बा” या “सूबेदार” कहा जाता था।
गोरखा प्रशासन व्यवस्था
गोरखों के कुमाऊँ पर अधिकार के बाद जोगा मल्ल शाह को वहाँ का पहला सूब्बा नियुक्त किया गया। वर्ष 1806 में ‘बड़ा बमशाह’ के नाम से प्रसिद्ध बमशाह ने यह पद संभाला। सूब्बा की सहायता के लिए एक काजी और एक सैनिक अधिकारी नियुक्त होता था, जिसे ‘नायब सूब्बा’ कहा जाता था। इन अधिकारियों ने गोरखा शासन को कुमाऊँ में व्यवस्थित रूप से चलाने में सहायता प्रदान की।
गोरखों का गढ़वाल पर आक्रमण (Invasion of Gurkhas on Garhwal)
सन् 1790 में जब गोरखा सेनापति अमरसिंह थापा ने कुमाऊँ की राजधानी अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया, तो उनका ध्यान अब गढ़वाल की ओर केंद्रित हुआ। 1791 में हर्षदेव की सहायता से गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण की योजना बनाई, किंतु यह प्रयास असफल रहा। अंततः वर्ष 1804 में गोरखों ने गढ़वाल पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।
गोरखों के विभिन्न सेनानायकों का नेतृत्व (Leadership of Various Generals of Gurkhas)
अमर सिंह थापा (Amar Singh Thapa) (1804–1815 ई.)
नेपाल नरेश रणबहादुर शाह ने अमर सिंह थापा को 1804 से 1815 तक काली नदी से सतलज तक के विजित क्षेत्रों का सर्वोच्च न्यायाधीश नियुक्त किया। वह एकमात्र ऐसा गोरखा सेनानायक था जिसने कुमाऊँ और गढ़वाल दोनों क्षेत्रों का प्रशासन संभाला। गढ़वाल में यह पहला गोरखा प्रशासक था, जिसे स्वयं रणबहादुर शाह ने नियुक्त किया था। उसे नेपाल दरबार की ओर से “सर्वोत्तम काजी” की उपाधि प्रदान की गई, जो नेपाल सरकार की सबसे ऊँची उपाधि मानी जाती थी।
1815 में अमरसिंह थापा और ब्रिटिश जनरल ऑक्टरलोनी के बीच मलावगढ़ की संधि संपन्न हुई। अमरसिंह के अधीन हस्तीदल चौतरिया को नायब सुब्बा और काजी रणधीर सिंह बस्न्यात को गढ़वाल क्षेत्र में सेनापति नियुक्त किया गया। हिमांचल और कांगड़ा अभियानों में व्यस्त रहने के कारण प्रशासनिक दायित्व अमर सिंह थापा के पुत्र रणजोर सिंह थापा के हाथों में आ गया।
रणजोर सिंह थापा (Ranjor Singh Thapa) (1804–1805 ई.)
रणजोर सिंह थापा, अमर सिंह थापा का पुत्र, सौम्य और दयालु स्वभाव का व्यक्ति था। वह विद्वानों और कला प्रेमियों का बड़ा सम्मान करता था। गढ़वाल के प्रसिद्ध चित्रकार और कवि मौलाराम उस पर विशेष कृपा से प्रभावित थे और उन्होंने उसे “कर्ण” की उपमा से विभूषित किया।
शासन व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए रणजोर सिंह ने एक सभा मंडली का गठन किया। उस समय गढ़वाल में नियुक्त कई राज्याधिकारी हिमांचल विजय और कांगड़ा दुर्ग के अभियानों में व्यस्त थे, इसलिए रणजोर सिंह ने स्थानीय प्रशासन हेतु ‘विचारी’ (न्यायाधीश) और ‘अचारी’ (प्रशासक) जैसे नए पदों का सृजन किया।
गोरखा शासन के कठोर रवैये का उदाहरण उस समय देखने को मिला जब महंत हरिसेवक पर हत्या का झूठा आरोप लगाकर उन्हें ‘कढ़ाई दीप’ जैसी अमानवीय यातना दी गई, जिसमें उनके दोनों हाथ बुरी तरह जल गए।
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हस्तीदल चौतरिया (Hastidal Chautaria) (1805–1808 ई.)
हस्तीदल चौतरिया एक शांत और सौम्य स्वभाव वाला शासक था। उसने कृषकों की भलाई के लिए कई सराहनीय कार्य किए। कृषि को प्रोत्साहन देने हेतु उसने तकावी ऋण (कृषि ऋण) प्रदान किए और साथ ही लगान की दरों में भी कटौती की। उसके शासनकाल में 1808 ई. में रेपर नामक अंग्रेज़ यात्री का गढ़वाल आगमन हुआ, जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने तिब्बत से व्यापारिक संबंध स्थापित करने के उद्देश्य से भेजा था। हस्तीदल चौतरिया की मृत्यु गणनाथ डांडा के युद्ध में हुई।
भैरों थापा (Bhairon Thapa) (1808–1811 ई.)
भैरों थापा का शासनकाल अत्याचार, नृशंसता और क्रूरता का प्रतीक माना जाता है। उसके सहायक भारदार जैसे छन्नू भण्डारी, बुद्धि थापा, परशुराम थापा और जमादार दून्तिराना भी उसी की भांति निर्दयी और बर्बर थे। गढ़राज्य में प्रवेश करते ही उसे नेपाल दरबार से कांगड़ा अभियान का आदेश मिला। उसकी अनुपस्थिति में आमिल और भारदारों ने जनता का खुलकर शोषण और लूटपाट की।
गढ़वाली विद्वान मौलाराम ने इन अत्याचारों की सूचना नेपाल दरबार को दी, लेकिन इसके विपरीत परिणामस्वरूप उसे दंडित किया गया। जबकि अमरसिंह थापा के शासनकाल में मौलाराम को ‘रण बहादुर चंद्रिका’ की रचना के लिए सनद और जागीर दी गई थी, भैरों थापा के काल में वह छीन ली गई। इस समय अंग्रेजों के लिए भांग का उत्पादन और लीसे (राल) का व्यापार भी आरंभ हुआ।
काजी बहादुर भण्डारी (Qazi Bahadur Bhandari) (1811–1812 ई.)
काजी बहादुर भण्डारी के शासनकाल में 1812 ई. में भूमि बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू की गई। भूमि को उसकी उपजाऊ क्षमता के आधार पर पाँच वर्गों—अव्वल, दम, सोम, चाहर और सूंखवासी—में विभाजित किया गया। गोरखा काल में कारीगरों को “कामी”, सुनारों को “सुनवार” और नाइयों को “नौ” कहा जाता था। ब्राह्मण दासों को “कठुआ” कहा जाता था। यूरोपीय यात्रियों हार्डविक और रेपर ने गोरखा शासन के अमानवीय अत्याचारों का हृदय विदारक चित्रण किया है।
गोरखों की न्याय प्रणाली (Justice System of Gorkhas)
गोरखों के शासनकाल में न्याय व्यवस्था का संचालन प्रांतीय स्तर पर सुब्बा, नायब सुब्बा, सेनानायक एवं अन्य फौजी अधिकारी करते थे। अल्मोड़ा में उस समय एक औपचारिक अदालत स्थापित थी, जिसके मुख्य न्यायाधीश को “विचारी” कहा जाता था। अदालत में अन्य सहायक न्यायाधीशों का समूह “सभा” कहलाता था।
गोरखा न्याय प्रणाली में वादी और प्रतिवादी दोनों को बुलाकर पूछताछ की जाती थी। यदि किसी गवाह के बयान पर संदेह होता, तो उसे सत्यापन के लिए महाभारत के हरिवंश खंड की शपथ दिलाई जाती थी।
जहां गवाह उपलब्ध नहीं होते थे, वहां विवाद सुलझाने के लिए “दिव्य” नामक अग्निपरीक्षा अपनाई जाती थी। दिव्य की विभिन्न विधियाँ थीं:
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गोला दीप: अभियुक्त को गर्म लोहे की छड़ पकड़कर कुछ दूरी तक चलना पड़ता था।
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कढ़ाई दीप: उबलते तेल में हाथ डालना होता था। यदि हाथ झुलस गया, तो दोषी माना जाता था; अन्यथा निर्दोष।
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तराजू दीप: अभियुक्त को पत्थरों से तौला जाता था। तुलन का समय शाम होता था और जिन पत्थरों से तौला गया, उन्हें सुरक्षित रख दिया जाता था। यदि अगले दिन अभियुक्त का वजन कम पाया जाता, तो वह दोषी समझा जाता; अन्यथा निर्दोष।
गोरखों द्वारा प्रचलित अन्य दिव्य परीक्षण:
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तीर का दीप: अभियुक्त को तब तक पानी में सिर डुबोकर रखना होता था जब तक दूसरा व्यक्ति छोड़े गए बाण तक पहुंचकर वापस न आ जाए।
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बौ-काटी हारया का दीप: दोनों पक्षों के लड़कों को पानी के कुण्ड में डुबोया जाता था; जो अधिक देर तक जीवित रह पाता, वह विजयी घोषित होता।
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काली हल्दी दीप: अभियुक्त को काली हल्दी की जड़ खिलाई जाती थी; यदि खाने के बाद वह जीवित रहता, तो निर्दोष माना जाता था।
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घात का दीप: विवादित वस्तु, धन या मिट्टी की मूर्ति को न्याय देवता गोलू के थान में रखा जाता था। जो व्यक्ति उसे उठाता, उसे छः माह के भीतर किसी अनहोनी का सामना नहीं होता, तो वह निर्दोष सिद्ध माना जाता था।
गोरखा न्याय प्रणाली कठोर, परंपरागत और ईश्वर विश्वास पर आधारित थी, जो आधुनिक न्याय व्यवस्था से बिल्कुल भिन्न थी।
History of Uttarakhand in Hindi: उत्तराखंड का इतिहास, एक पौराणिक और ऐतिहासिक यात्रा
उत्तराखण्ड में गोरखों की कर नीति (Tax Policy of Gorkhas in Uttarakhand)
उत्तराखण्ड में शासन करते हुए गोरखों ने चंद राजाओं द्वारा लगाए गए छत्तीस रकम और बत्तीस कलम वाले करों को समाप्त कर एक नई कर व्यवस्था लागू की। इस नई प्रणाली के अंतर्गत गोरखों ने कुछ विशेष वर्गों पर विशिष्ट कर लगाए, जैसे ब्राह्मणों पर ‘कुसही’ कर।
गोरखा शासनकाल में प्रचलित प्रमुख कर निम्नलिखित थे:
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पुंगाड़ी कर: यह भूमि कर था जिससे सालाना लगभग डेढ़ लाख रुपये की आय होती थी। सैनिकों का वेतन इसी कर से दिया जाता था।
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सलामी कर: अधिकारियों को भेंट स्वरूप दिया जाने वाला एक तरह का नजराना।
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टीका भेंट कर: शुभ अवसरों, जैसे विवाह आदि में लिया जाने वाला कर।
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पुगड़ी कर: भूमि या संपत्ति के हस्तांतरण के समय नया स्वामी इसे एकमुश्त अदा करता था।
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मांगा कर: प्रत्येक युवक से एक रुपया लिया जाता था। युद्धकाल में भी इसे अस्थायी कर के रूप में वसूला जाता था।
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सोन्या फागुन कर: उत्सवों के समय लिया जाता था, जिसमें भैंसे व बकरे सम्मिलित होते थे।
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टान कर: यह कर हिंदू व भोटिया बुनकरों से कपड़े के रूप में वसूला जाता था।
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मिझारी कर: यह शिल्पकारों व जगरिया ब्राह्मणों से लिया जाता था।
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मरो कर: यह कर उन व्यक्तियों से वसूला जाता था जिनकी संतान नहीं होती थी।
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रहता कर: जो लोग गांव छोड़कर भाग जाते थे, उन पर यह कर लगाया जाता था।
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बहता कर: छिपाई गई संपत्ति पर लगाया जाने वाला कर।
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घीकर कर: दुधारू पशुओं के स्वामियों से वसूला जाने वाला कर।
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मौंकर कर: प्रत्येक परिवार से दो रुपये का कर।
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जान्या सुन्या कर: राजकर्मचारियों से लगान के संबंध में पूछताछ करने पर लगाया जाने वाला कर।
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मेजबानी दस्तूर कर: यह कर प्रजा की सुरक्षा हेतु लिया जाता था।
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अथनी दफतरी कर: राजस्व कार्य करने वाले कर्मचारियों के लिए खश जमींदारों से वसूला जाने वाला कर।
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दोनिया कर: यह कर भाबर और पहाड़ी क्षेत्रों में पशु चराने वालों से लिया जाता था।
गोरखों का प्रमुख पर्व ‘दशाई’ (दशहरा) था। उनकी राजकीय भाषा गोरख्याली थी। उनके धार्मिक झुकाव का प्रमाण चंपावत के बालेश्वर मंदिर के 1796 में किए गए जीर्णोद्धार से मिलता है, जिसे सूबेदार महावीर थापा ने कराया था। देहरादून में उन्होंने गुरु रामराय के महंत हरिसेवक को सदावर्त व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंपी थी।
गोरखाओं का अंग्रेजों के साथ युद्ध (Gorkhas’ War with the British)
नेपाल के प्रधानमंत्री भीमसेन थापा के नेतृत्व में गोरखाओं और अंग्रेजों के बीच संघर्ष की शुरुआत हुई। भीमसेन थापा ने विस्तारवादी नीति अपनाते हुए गोरखपुर क्षेत्र के लगभग 200 गांवों पर अधिकार कर लिया था। इसी के चलते वर्ष 1814 में नेपाल और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच युद्ध छिड़ गया। यह केवल अंग्रेजों से ही नहीं, बल्कि महाराजा रणजीत सिंह से भी गोरखाओं की टक्कर हुई थी।
इस युद्ध का प्रमुख कारण गोरखपुर स्थित बुटवल का इलाका था। प्रारंभ में यह क्षेत्र पाल्या के राजा के अधीन था, जिसे गोरखाओं ने हराकर नेपाल में बंदी बना लिया था। 1804 में गोरखाओं ने उस परगने को पूरी तरह अपने अधीन कर लिया, जबकि उस समय बुटवल अंग्रेजी शासन का हिस्सा था। इसे देखते हुए ब्रिटिश गवर्नर लार्ड हेस्टिंग्स ने 1814 में सेना को बुटवल और आसपास के कब्जे वाले क्षेत्रों पर नियंत्रण का आदेश दिया।
उस समय ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स और नेपाल के प्रधानमंत्री भीमसेन थापा थे। नेपाल के राजा गीवार्ण युद्ध विक्रम शाह थे। अंग्रेजों ने विवाद निपटाने के लिए मेजर ब्रेडशॉ को नियुक्त किया, लेकिन नेपाली अफसरों ने किसी भी समझौते से इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप अप्रैल 1814 में अंग्रेजों ने बुटवल को कंपनी में शामिल कर लिया।
जब अंग्रेजों ने बुटवल में सिविल अफसर नियुक्त किए, तो 29 मई 1814 को गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने मनराज फौजदार के नेतृत्व में एक टुकड़ी भेजी, जिसने हमला कर 18 ब्रिटिश पुलिस अफसरों को मार दिया और पूरे विवादित क्षेत्र पर पुनः कब्जा कर लिया। उस समय लार्ड मोयरा संयुक्त प्रांत का गवर्नर था, जिसने गोरखपुर से बड़ी फौज भेजी और बुटवल को दोबारा अपने अधीन कर लिया।
इसके बाद वर्ष 1814 में दोनों पक्षों के बीच भीषण युद्ध आरंभ हुआ। अंग्रेजों ने अपनी 22,000 सैनिकों की सेना को चार डिवीजनों में विभाजित कर दिया:
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दीनापुर डिवीजन – नेतृत्व: जनरल मार्ले; इसमें 8000 सैनिक थे, जिन्हें बिहार से काठमांडू की ओर भेजा गया। लेकिन फरवरी 1815 में हरिहरगढ़ के युद्ध में गोरखाओं ने इस डिवीजन को बुरी तरह पराजित कर खदेड़ दिया।
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बनारस डिवीजन – नेतृत्व: जनरल जे.एस. वुड; इसमें 4000 सैनिक थे, जो गोरखपुर पर हमला करने के लिए भेजे गए।
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मेरठ डिवीजन – नेतृत्व: जनरल गिलेस्पी; इसके 4000 सैनिकों को देहरादून पर आक्रमण का आदेश मिला।
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लुधियाना डिवीजन – नेतृत्व: जनरल ऑक्टरलोनी; इसमें 6000 सैनिक शामिल थे, जिन्हें काली नदी से सतलुज नदी के क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए रवाना किया गया।
यह युद्ध नेपाल और अंग्रेजों के बीच गहरे टकराव का प्रतीक बना, जिसकी परिणति बाद में समझौतों और क्षेत्रीय पुनर्संयोजन में हुई।
नालापानी का ऐतिहासिक युद्ध / खलंगा का युद्ध (Historical Battle of Nalapani / Battle of Khalanga)
इस युद्ध की शुरुआत देहरादून स्थित खलंगा (कलुंगा) के किले पर आक्रमण से हुई, जहां मात्र 500 गोरखा सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी सुरक्षा में तैनात थी। इस किले की कमान वीर सेनानायक बलभद्र सिंह थापा के हाथ में थी।
ब्रिटिश सेना की ओर से मेजर जनरल गिलेस्पी ने नालापानी और खलंगा किलों पर एक साथ धावा बोला। युद्ध की शुरुआत 31 अक्टूबर 1814 को हुई, लेकिन पहले ही हमले में जनरल गिलेस्पी मारा गया। बावजूद इसके, अंग्रेजों ने किला जीत लिया और इस संघर्ष में गोरखाओं के 420 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए।
बलभद्र थापा ने अत्यंत कुशलता से अंग्रेजों को चकमा देकर किले से पीछे हटते हुए अपनी जान बचाई, लेकिन बाद में वह अफगानों के विरुद्ध युद्ध में शहीद हो गया। इस युद्ध का आंखों देखा विवरण ब्रिटिश इतिहासकार विलियम फेजर ने प्रस्तुत किया है।
दिगालीचौड़ का युद्ध / खिलपति का युद्ध (Battle of Digalichaud / Battle of Khilpati)
31 मार्च 1815 को दिगालीचौड़ के मैदान में गोरखा सेनापति हस्तीदल चौतरिया और ब्रिटिश अधिकारी कैप्टन हियरसे के बीच भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में हस्तीदल चौतरिया ने कैप्टन हियरसे को परास्त कर उसे बंदी बना लिया था।
गणनाथ डांडा का युद्ध (Battle of Gananath Danda)
23 अप्रैल 1815 को विनायकथल के मैदान में गोरखा सेनापति हस्तीदल चौतरिया और अंग्रेज अफसर निकलसन के बीच निर्णायक युद्ध हुआ। इस युद्ध में गोरखा पक्ष से हस्तीदल चौतरिया और सरदार जयरखा वीरगति को प्राप्त हुए।
अल्मोड़ा या लालमंडी किला का युद्ध (Battle of Almora or Lalmandi Fort)
25 अप्रैल 1815 को अंग्रेज अधिकारी कर्नल निकलसन और गोरखा सेनापति चामू भंडारी तथा बमशाह के नेतृत्व में लालमंडी में संघर्ष छिड़ा।
रात्रि के अंधेरे में चामू भंडारी के नेतृत्व में गोरखा सैनिकों ने खुकरी लेकर अंग्रेजी छावनी में हमला बोला, जिससे ब्रिटिश सेना में अफरातफरी मच गई।
26 अप्रैल को बमशाह ने युद्ध विराम का प्रस्ताव देते हुए अंग्रेजों को पत्र भेजा और उन्हें सूचित किया कि गोरखा सेना नेपाल लौटने को तैयार है।
अल्मोड़ा या लालमंडी की संधि (Treaty of Almora or Lalmandi)
27 अप्रैल 1815 को चौतरिया बमशाह और अंग्रेज प्रतिनिधि एडवर्ड गार्डनर के बीच संधि संपन्न हुई।
गोरखा पक्ष से बमशाह, चामू भंडारी और जशमदन थापा ने हस्ताक्षर किए, जबकि अंग्रेजों की ओर से गार्डनर ने हस्ताक्षर किए।
संधि के बाद गोरखा सेना ने धीरे-धीरे कुमाऊँ छोड़ना प्रारंभ कर दिया।
बमशाह ने अमरसिंह थापा को भी नेपाल लौटने को कहा, जो उस समय ऑक्टरलोनी के साथ युद्धरत थे।
मलावगढ़ की संधि (Treaty of Malavgarh)
15 मई 1815 को गोरखा सेनानायक अमर सिंह थापा और अंग्रेज सेनापति ऑक्टरलोनी के बीच मलावगढ़ में संधि हुई।
हालांकि नेपाल सरकार ने इस संधि को अमान्य घोषित कर दिया।
उस समय नेपाल के राजा युद्ध विक्रम शाह और प्रधानमंत्री भीमसेन थापा थे।
लेकिन बमशाह, जो अंग्रेजों की ताकत को भांप चुका था, युद्ध के बजाय शांति चाहता था।
समस्या समाधान हेतु बनारस से दिवंगत राजा रण बहादुर शाह के गुरु गजराज मिश्र को काठमांडू बुलाया गया। उन्होंने कर्नल ब्रेडशॉ के साथ 2 दिसंबर 1815 को संधि की।
संगौली की संधि (Treaty of Sangauli)
संगौली की संधि 2 दिसंबर 1815 को संपन्न हुई।
इस संधि के तहत नेपाल ने काली नदी के पश्चिम का पर्वतीय भूभाग, तराई क्षेत्र और मंची नदी के पूर्व का हिस्सा ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया।
साथ ही, काठमांडू में एक ब्रिटिश रेजिमेंट की नियुक्ति पर सहमति बनी, लेकिन अंग्रेजी रेजीडेंट को काठमांडू में रखने से गोरखा दरबार ने इंकार कर दिया।
गजराज मिश्र के माध्यम से गोरखों ने पुनः युद्ध की घोषणा कर दी।
नेपाल दरबार के थापा गुट ने इस संधि की पुष्टि से इनकार कर दिया।
28 फरवरी 1816 को ऑक्टरलोनी ने मकवानपुर के निकट गोरखों पर हमला किया, जिसमें 800 गोरखा सैनिक मारे गए।
इसके बाद गोरखों ने सूचना दी कि दरबार ने संधि की स्वीकृति दे दी है और अंततः 4 मार्च 1816 को नेपाल ने संधि की औपचारिक पुष्टि कर दी।
ब्रिटिश सरकार की ओर से एडवर्ड गार्डनर को कुमाऊँ का कमिश्नर और ट्रेल को उनका सहायक नियुक्त किया गया।
गार्डनर ही नेपाल में नियुक्त होने वाला पहला ब्रिटिश रेजीडेंट बना।
ब्रिटिश सेना में मेजर जनरल ऑक्टरलोनी को सर्वाधिक योग्य सेनापति माना गया, जिनके नेतृत्व में जैठक, रामगढ़ और मलावगढ़ के किलों में भीषण युद्ध हुए।
Uttarakhand Ke Mandiro Ki Shaili | उत्तराखंड के मंदिरों की शैली
मूरक्राफ्ट की तिब्बत यात्रा (Moorcraft’s Journey to Tibet)
सन् 1812 में मूरक्राफ्ट और कैप्टन हियरसे, कुमाऊँ और गढ़राज्य होते हुए तिब्बत की ओर रवाना हुए। उनका उद्देश्य ऊन (ऊनन उत्पादन) से संबंधित विस्तृत जानकारी प्राप्त करना था। इस यात्रा में उनके साथ गुलाम हैदर ख़ां और हरकदेव पण्डित भी शामिल थे। तिब्बत में प्रवेश करते समय सभी यात्रियों ने गुसाइयों का वेश धारण किया, ताकि वे पहचान से बच सकें।
कैप्टन हियरसे ने 1815 में गोरखा अधिकारियों के बारे में टिप्पणी करते हुए उन्हें चंचल, विश्वासघाती, लालची, क्रूर और छल-कपट में निपुण बताया।
कुमाऊँ में गोरखा प्रशासक (Gurkha Administrators in Kumaon)
सुब्बा जोगामल्ल (1791-92 ई.)
कुमाऊँ में पहले गोरखा प्रशासक के रूप में सुब्बा जोगामल्ल की नियुक्ति हुई। सवत् 1848-49 (सन् 1791-92 ई.) में उसने पहला बंदोबस्त किया। इसमें प्रत्येक आबाद बीसी (बीस नाली जमीन) पर एक रुपया कर निर्धारित किया गया। मवासों पर घुरही-पिछही नाम से दो रुपये वार्षिक कर लगाया गया। साथ ही प्रत्येक गांव से सुवांगी दस्तूर दफ्तर के खर्च हेतु एक अतिरिक्त राजकर वसूला गया।
काजी नरसाही (1793 ई.)
1793 में काजी नरसाही को कुमाऊँ का प्रशासक नियुक्त किया गया।
बमशाह और रूद्रवीर शाह (1797 ई.)
1797 में बमशाह और रूद्रवीर शाह को संयुक्त रूप से कुमाऊँ का प्रशासन सौंपा गया। इन प्रशासकों ने ब्राह्मणों पर ‘कुसही’ नामक भूमिकर और बुनकरों पर ‘टान’ नामक कर लागू किया। बमशाह चौतरिया का जन्म कुमाऊँ में ही हुआ था।
रण बहादुर और अन्य नियम
गोरखा प्रशासक रण बहादुर ने अपना नाम बदलकर ‘स्वामी निगुर्णानंद’ रख लिया था। गोरखा शासनकाल में महिलाओं का छत पर चढ़ना एक दंडनीय अपराध माना गया।
महावीर थापा का योगदान
1796 में वीर महावीर थापा ने चंपावत के प्रसिद्ध बालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।
गौरतलब है कि गोरखा सैनिक खुकरी को अपना मुख्य हथियार मानते थे और वे बौद्ध व हिंदू दोनों धर्मों का पालन करते थे।
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