बद्रीनाथ धाम का महत्व
बद्रीनाथ धाम को “दूसरा बैकुंठ” भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म के अनुसार बैकुंठ वह स्थान है जहां भगवान विष्णु का निवास होता है। बद्रीनाथ धाम का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्योंकि यह भगवान विष्णु के पूजा स्थल के रूप में प्रसिद्ध है और इसे शीतकाल में भगवान के शीत निद्रा में जाने के बाद विशेष पूजा और तिथि तय करने की परंपरा है।
बद्रीनाथ धाम का इतिहास
बद्रीनाथ धाम का नाम भगवान विष्णु के एक तपस्या संबंधी प्रसंग से जुड़ा है। एक मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु जब यहां तपस्या कर रहे थे, तब देवी लक्ष्मी उन्हें बचाने के लिए एक बेर के पेड़ के रूप में बदल गईं और बर्फ को अपने ऊपर सहन किया। इस तपस्या के बाद भगवान विष्णु ने कहा कि इस स्थान को “बदरी के नाथ” के रूप में जाना जाएगा, और तभी से यह स्थान बद्रीनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यह स्थान पहले भगवान विष्णु का पूजास्थल था, लेकिन यहां मंदिर की स्थापना बाद में हुई। इस मंदिर की स्थापना के पीछे भी एक दिलचस्प इतिहास है। माना जाता है कि जब हिंदू और बौद्ध संप्रदायों के बीच संघर्ष हुआ, तो मंदिर की मूर्ति को बचाने के लिए इसे नारद कुंड में छुपा दिया गया था। बाद में, आदि शंकराचार्य ने इस मूर्ति को निकाला और मंदिर में स्थापित किया। इस मंदिर की देखरेख हमेशा गढ़वाल राज्य के शासकों द्वारा की जाती रही है, और 20वीं सदी में यह मंदिर ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया था, लेकिन फिर भी मंदिर की देखरेख गढ़वाल के राजपरिवार के द्वारा होती रही।
कब खुलेंगे बद्रीनाथ के कपाट?
बद्रीनाथ धाम के कपाट 4 मई को सुबह 6 बजे भक्तों के लिए खोले जाएंगे। कपाट खोलने से पहले विधिवत पूजा-अर्चना की जाएगी। बता दें कि चारधाम यात्रा की शुरुआत 22 अप्रैल को राज दरबार से गाडू घड़ा तेल कलश यात्रा से शुरू होने वाली है।
कपाट खोलने का दिन: एक सदियों पुरानी परंपरा
बद्रीनाथ धाम के कपाट खोलने की तारीख हर साल बसंत पंचमी के दिन तय की जाती है। इसके लिए एक प्राचीन और रोचक परंपरा का पालन किया जाता है। पहले के समय में राजा को भगवान का प्रतिनिधि माना जाता था, और इसीलिए कपाट खोलने की तिथि राजा की कुंडली देखकर तय की जाती थी। राजपुरोहित ग्रहों की दशा और दिशा का विश्लेषण करने के बाद ही इस तिथि की घोषणा करते थे। यह प्रक्रिया आज भी जारी है, और कपाट खोलने की तिथि की घोषणा एक विशेष धार्मिक अनुष्ठान के रूप में की जाती है।
गाड़ू घड़ा परंपरा: एक अनोखी पूजा प्रक्रिया
कपाट खोलने से पहले गाड़ू घड़ा परंपरा का पालन किया जाता है। इस परंपरा में टिहरी राजमहल की महारानी की अगुवाई में तिल का तेल निकाला जाता है। यह तिल का तेल किसी मशीन से नहीं, बल्कि मूसल-ओखली और सिलबट्टे का उपयोग कर पिरोया जाता है। इस तेल को एक घड़े में भरकर “गाड़ू घड़ा” कहा जाता है। फिर इसे डिम्मर गांव में स्थित लक्ष्मी नारायण मंदिर में पूजा के लिए रखा जाता है।
इस तेल वाले कलश को पूजा के बाद जोशीमठ के नृसिंह मंदिर लाया जाता है। यहां से इसे रात्रि विश्राम के लिए पांडुकेश्वर लाया जाता है। इस यात्रा में भगवान के विभिन्न रूपों की डोलियां भी शामिल होती हैं। यह पूरी प्रक्रिया पांच दिनों में पूरी होती है और हर दिन एक विशेष धार्मिक गतिविधि होती है। इस यात्रा में रावल (मुख्य पुजारी) के नेतृत्व में पूजा की जाती है। रावल को विशेष सम्मान प्राप्त है और उन्हें भगवान की मूर्ति को स्पर्श करने का अधिकार है।
रावल का विशेष महत्व
रावल, जो केरल के नंबूदरी ब्राह्मण होते हैं, बद्रीनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी होते हैं। उनका कार्य मंदिर में पूजा संपन्न करना और भगवान विष्णु की मूर्ति की देखरेख करना है। आदि शंकराचार्य ने ही रावल को पूजा करने की परंपरा शुरू की थी। रावल का मंदिर में प्रवेश विशेष रूप से सम्मानित होता है, और केवल उन्हीं को भगवान की मूर्ति को छूने की अनुमति है। अगर रावल उपस्थित नहीं होते, तो डिमरी ब्राह्मण पूजा करते हैं, लेकिन फिर भी रावल के बिना पूजा संपन्न नहीं होती।
मंदिर की संरचना और विशेषताएँ
बद्रीनाथ मंदिर की तीन मुख्य संरचनाएँ हैं: गर्भगृह, दर्शन मंडप, और सभा मंडप। गर्भगृह वह स्थान है जहां भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित की गई है। गर्भगृह के ऊपर एक गुंबद है, जो लगभग 15 मीटर ऊंचा है और सोने से ढका हुआ है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर धनुष आकार की सीढ़ियाँ हैं, जो भक्तों को गर्भगृह तक पहुंचाती हैं। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही भगवान विष्णु की शालिग्राम से बनी प्रतिमा दिखाई देती है, जो भक्तों को दिव्यता का अहसास कराती है।
कपाट खुलने की परंपरा और धार्मिक प्रक्रिया
कपाट खुलने के दिन, बद्रीनाथ मंदिर के प्रमुख पुजारी (रावल) एक महिला के रूप में सजते हैं, और यह परंपरा सनातन धार्मिक मान्यताओं से जुड़ी हुई है। माना जाता है कि उद्धव जी भगवान विष्णु के बाल सखा हैं और उनके रिश्ते में माता लक्ष्मी के जेठ होते हैं। इसलिए रावल का स्त्री रूप धारण करना यह सुनिश्चित करता है कि कोई पुरुष भगवान के साथ उनकी पत्नी लक्ष्मी को न छुए। यह प्रक्रिया सदियों पुरानी मान्यताओं और परंपराओं के अनुरूप होती है।
बद्रीनाथ धाम और टिहरी राजपरिवार का संबंध
बद्रीनाथ धाम के कपाट खोलने की प्रक्रिया में टिहरी राजपरिवार का महत्वपूर्ण योगदान है। मंदिर की तीन चाबियाँ होती हैं, जिनमें से एक चाबी टिहरी राजपरिवार के पास होती है, जबकि बाकी की दो चाबियाँ मंदिर के मेहता और भंडारी के पास रहती हैं। टिहरी राजपरिवार के राजा इस प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल होते हैं और उनका धार्मिक महत्व अत्यधिक है।
आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण
बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने का दिन न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह क्षेत्रीय संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण का प्रतीक भी है। यह प्रक्रिया न केवल भगवान विष्णु की पूजा का हिस्सा है, बल्कि यह उत्तराखंड की समृद्ध धार्मिक धरोहर को संरक्षित रखने का भी एक महत्वपूर्ण तरीका है।
बद्रीनाथ धाम के कपाट खोलने की परंपरा सदियों पुरानी है और यह उत्तराखंड की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न हिस्सा है। टिहरी राजपरिवार का इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान है, और इसके पीछे की धार्मिक मान्यताएँ और परंपराएँ इसे और भी खास बनाती हैं। इस स्थान की पवित्रता और देवता के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है यह अनूठी प्रक्रिया, जो हर वर्ष एक नए रूप में प्रकट होती है।
बद्रीनाथ: एक पवित्र तीर्थ स्थल
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