हिमालयन सोसायटी ऑफ जियोसाइंटिस्ट और उत्तराखण्ड आपदा प्रबंधन विभाग के तत्वावधान में आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते प्राकृतिक आपदाओं के खतरों पर चर्चा हुई। विशेषज्ञों ने विशेष रूप से लैंडस्लाइड डैम और ग्लेशियर झीलों से उत्पन्न खतरों को लेकर गंभीर चेतावनी दी। सम्मेलन के संयोजक श्री बी.डी. पाटनी ने कहा कि हिमालयी राज्यों में जलवायु परिवर्तन और मानव हस्तक्षेप के कारण नई तरह की आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है, जो भविष्य में गंभीर परिणाम ला सकता है।
पाटनी ने कहा, “हिमालयी क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के चलते अस्थिरता बढ़ रही है। इससे लैंडस्लाइड डैम और ग्लेशियर झीलों का निर्माण हो रहा है, जो अचानक टूटने पर भारी तबाही मचा सकते हैं। अगर समय रहते इनसे निपटने के उपाय नहीं किए गए, तो यह क्षेत्र बड़ी आपदाओं का सामना कर सकते हैं।”
उन्होंने यह भी बताया कि आज के समय में नदियों के किनारे हो रहे अतिक्रमण ने समस्या को और गंभीर बना दिया है। पहले लोग नदियों से दूर रहकर घर बनाते थे, लेकिन अब लोग नदी किनारे बसेरा कर रहे हैं। होटल, कैंप और अन्य निर्माण से नदी के बहाव के प्राकृतिक मार्ग में बाधा उत्पन्न हो रही है, जिससे नदियों का प्रवाह बदलने और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होने की संभावनाएं बढ़ रही हैं। भविष्य में प्राकृतिक आपदाओं का खतरा ऐसे निर्माणों को सबसे पहले प्रभावित करेगा।
ग्लेशियर झीलें और उनका बढ़ता खतरा
यू.एल.एम.एम.सी के निदेशक श्री शांतनु सरकार ने बताया कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एन.डी.एम.ए) ने उत्तराखण्ड में 13 ग्लेशियर झीलों को चिह्नित किया है, जिनमें से 5 झीलें अत्यधिक जोखिम वाली हैं। ग्लेशियर झीलों के टूटने का खतरा अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र में होने वाले बड़े नुकसान का कारण बन सकता है, जिसके चलते भारी जान-माल की हानि हो सकती है। श्री सरकार ने बताया कि यू.एल.एम.एम.सी इन झीलों का व्यापक अध्ययन कर रहा है ताकि उनके टूटने से पहले ही रोकथाम के उपाय किए जा सकें। उन्होंने यह भी बताया कि हिमालयी क्षेत्रों के जियो-टेक्निकल, जियो-फिजिकल, और जियोलॉजिकल अध्ययन के जरिए आपदाओं को कम करने के उपाय खोजे जा रहे हैं।
साथ ही उन्होंने कहा कि लिडार सर्वे जैसे उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल कर इन क्षेत्रों के डाटा को रेखीय विभागों के साथ साझा किया जा रहा है ताकि इनके अनुरूप विभिन्न निर्माण योजनाएं तैयार की जा सकें।
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स्थानीय पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा और भविष्य का खतरा
पाटनी ने कहा कि हिमालयी क्षेत्रों में हमारे पूर्वजों का पारंपरिक ज्ञान इस क्षेत्र के संरक्षण के लिए अमूल्य था। पहले लोग नदियों से दूर सुरक्षित स्थानों पर बस्तियां बसाते थे, जिससे आपदाओं के प्रभाव से बचाव होता था। लेकिन आज तेजी से हो रहे शहरीकरण और पर्यटकों की सुविधाओं को देखते हुए नदी के किनारे घर, होटल और बाजार बना दिए गए हैं। पाटनी के अनुसार, यह क्षेत्र के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहा है और भविष्य में इन स्थानों पर बाढ़, भूस्खलन और अन्य आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है।
विशेषज्ञों का सुझाव और दिशा-निर्देश
हिमालयन सोसायटी ऑफ जियोसाइंटिस्ट के अध्यक्ष और पूर्व महानिदेशक जीएसआई, श्री आरएस गरखाल ने इस सम्मेलन के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इसका मुख्य उद्देश्य हिमालयी क्षेत्रों में जोखिम को कम करने के लिए रणनीति विकसित करना है। गरखाल ने कहा कि राज्य और केंद्र सरकार को आपदा प्रबंधन में विशेषज्ञों की सलाह पर ध्यान देना चाहिए और लैंडस्लाइड डैम तथा ग्लेशियर झीलों जैसे जोखिमों के प्रति सतर्क रहना चाहिए।
सीबीआरआई के मुख्य वैज्ञानिक डॉ. डीपी कानूनगो ने कहा कि वैज्ञानिक समुदाय को अपनी चिंताओं को मजबूती से प्रशासन के सामने रखना चाहिए ताकि समय रहते प्रभावी कदम उठाए जा सकें। उन्होंने कहा कि आपदा से पहले की तैयारियों को मजबूत बनाना बेहद जरूरी है, जिससे आपदाओं के समय राहत और बचाव कार्य को जल्दी और प्रभावी तरीके से अंजाम दिया जा सके।
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