
Uttarakhand State Movement in Hindi (1900 - 2000): जानें उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन (1900-2000) के बारें में
Uttarakhand State Movement in Hindi: उत्तराखंड राज्य आंदोलन (1900–2000) भारत के आज़ादी आंदोलन से लेकर अलग राज्य की मांग तक फैला हुआ एक लंबा संघर्ष था। यह आंदोलन न केवल सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का प्रतीक रहा, बल्कि इसमें स्थानीय जनमानस, स्वतंत्रता सेनानियों, सैनिकों और समाज सुधारकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1930 के दशक में पेशावर कांड, नमक सत्याग्रह और दलित जागरण आंदोलनों से लेकर 1990 के दशक में पृथक राज्य की मांग तक, उत्तराखंडवासियों ने अपने अधिकार, पहचान और आत्मसम्मान के लिए लगातार संघर्ष किया। यह इतिहास उत्तराखंड की संस्कृति, साहस और एकता का एक गौरवपूर्ण दस्तावेज है।
प्रारंभिक स्वरूप और राजनीतिक चेतना (1930 के दशक से)
1930 में पौड़ी जेल में डिप्टी कमिश्नर इबटसन द्वारा स्वतंत्रता सेनानी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के साथ दुर्व्यवहार किया गया, जिसमें उनके बाल जबरन जल में नोचे गए। इस घटना के विरोध में कोटद्वार और दुगड्डा के सत्याग्रहियों ने इबटसन का रास्ता रोका और काले झंडे दिखाए। इस घटना ने गढ़वाल की राजनीतिक चेतना को झकझोर दिया।
वहीं, गुजडू को “गढ़वाल की बारदोली” कहा जाने लगा, जहां कैप्टन रामप्रसाद नौटियाल ने सेना छोड़ने के बाद अपने जीवन को जनजागरण के लिए समर्पित कर दिया।
पेशावर कांड और गढ़वाली वीरता
23 अप्रैल 1930 को पेशावर कांड हुआ, जिसमें अफगान स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलाने के आदेश को गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों ने मानने से इनकार कर दिया। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने “गढ़वाली, सीज फायर” कहते हुए अद्वितीय साहस का परिचय दिया। उन्होंने कहा, “हम भारत की रक्षा के लिए सेना में भर्ती हुए हैं, न कि निहत्थे देशवासियों पर गोली चलाने के लिए।” इस वीरता के लिए गांधीजी ने उन्हें पवनार आश्रम बुलाकर “गढ़वाली” की उपाधि दी।
विशेष जानकारी: वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की पत्नी का नाम भागीरथी देवी था। उनके जीवन पर राहुल सांकृत्यायन ने पुस्तक भी लिखी है।
साम्यवाद और जनचेतना का उभार
गढ़वाली बाद में प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता पी.सी. जोशी से मिले और पौड़ी में मार्क्सवादी कार्यालय खोलकर क्षेत्र में साम्यवादी विचारधारा का प्रचार किया। इसी दौरान मोतीलाल नेहरू ने 23 अप्रैल को गढ़वाल दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
जून 1930 में कोट सितोंस्यू (पौड़ी) में कांग्रेस का सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता पं. गोविंद बल्लभ पंत ने की। यहाँ गढ़वाली सैनिकों की वीरता की प्रशंसा करते हुए प्रस्ताव पारित किया गया।
History of Uttarakhand in Hindi: उत्तराखंड का इतिहास, एक पौराणिक और ऐतिहासिक यात्रा
स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखण्ड की भागीदारी
26 जनवरी 1930 को, टिहरी रियासत को छोड़कर पूरे उत्तराखण्ड में राष्ट्रीय ध्वज फहराकर प्रथम स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। 12 मार्च 1930 को गांधीजी ने डांडी यात्रा शुरू की, जिसमें कुमाऊं से भैरव दत्त जोशी, खड्ग बहादुर, और ज्योतिराम कांडपाल शामिल हुए।
ज्योतिराम कांडपाल ने अध्यापक पद से इस्तीफा देकर गांधीजी के साथ सत्याग्रह में भाग लिया और गुजरात के धरासाणा में नमक आंदोलन में जेल भी गए। बाद में गांधीजी के कहने पर उन्होंने देघाट में “उद्योग मंदिर आश्रम” की स्थापना की।
कौसानी और अल्मोड़ा का योगदान
गांधीजी की प्रेरणा से कौसानी के पास चनौदा में “गांधी आश्रम” स्थापित हुआ, जो भारत छोड़ो आंदोलन (1942) का प्रमुख केंद्र बना। 26 मई 1930 को विक्टर मोहन जोशी और शांतिलाल त्रिवेदी ने अल्मोड़ा नगरपालिका में तिरंगा फहराया।
गोविंद बल्लभ पंत और प्रताप सिंह नेगी ने कुमाऊं व गढ़वाल में नमक सत्याग्रह का नेतृत्व किया। नैनीताल में बद्रीदत्त पांडे ने प्रभावशाली भाषण दिया और नमक बेचा। अल्मोड़ा में यह आंदोलन “झंडा सत्याग्रह” में बदल गया और छात्रों ने तिरंगे के साथ प्रदर्शन किया।
वन आंदोलन और क्षेत्रीय संघर्ष
लोहाघाट व चंपावत में वन समस्याओं को लेकर हर्षदेव औली के नेतृत्व में आंदोलन हुए। पौड़ी में सत्याग्रहियों ने लूनी जलस्रोत पर कब्जा कर उसे आंदोलन का प्रतीक बनाया। 28 अगस्त 1930 को जयानंद भारती और उनके साथियों ने जहरीखाल स्कूल में तिरंगा फहराया।
सल्ट क्षेत्र में सविनय अवज्ञा आंदोलन ने व्यापक रूप लिया। यहाँ 65 गाँवों में से केवल 4 गांव ऐसे रहे जिनके मालगुजारों ने इस्तीफा नहीं दिया। गोबिंद राम काला के नेतृत्व में 404 ग्रामीणों ने जंगल सत्याग्रह किया।
क्रांतिकारी गतिविधियां
इंद्र सिंह ने हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ तथा मद्रास बम कांड में भाग लिया और उन्हें अंडमान में 20 वर्षों का कारावास हुआ। बच्चूलाल ने ऊटी बैंक डकैती (1933) में भाग लिया और 18 वर्षों की सजा काटी।
शिल्पकार सुधार आंदोलन (1905-1935)
कुमाऊं में छुआछूत के खिलाफ सबसे पहले आवाज खुशीराम आर्य ने 1905 में टम्टा सुधारिणी सभा की स्थापना कर उठाई, जिसे 1913 में शिल्पकार सुधारिणी सभा नाम दिया गया।
श्री कृष्ण टम्टा अल्मोड़ा नगरपालिका के पहले शिल्पकार सदस्य बने। अंग्रेज कमिश्नर रैम्जे ने हीरा टम्टा को अंग्रेजी दफ्तर में नौकरी दी थी। 1930 में लाला लाजपत राय के नैनीताल आगमन पर सुनकिया गांव में जनेऊ धारण व आर्य नाम ग्रहण का आंदोलन हुआ।
महत्वपूर्ण घटनाएं:
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1911: हरिप्रसाद ने ‘शिल्पकार’ शब्द का प्रयोग किया।
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1932: इस शब्द को मान्यता मिली।
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1925: अल्मोड़ा में पहला बड़ा शिल्पकार सम्मेलन हुआ।
गांधीजी ने 1929 में अल्मोड़ा आकर सभा में कहा:
“अस्पृश्यता राष्ट्र पर कलंक है और इसे मिटाना हर हिंदू का धर्म है।”
उनके प्रयासों से उत्तराखण्ड में हरिजन सेवक संघ की स्थापना हुई और अध्यक्ष बनाए गए इंद्र सिंह नयाल।
1900 से 2000 के बीच उत्तराखण्ड में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का अभूतपूर्व विकास हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर सामाजिक सुधार आंदोलनों तक उत्तराखण्ड ने देश की हर लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाई और अंततः 2000 में अपने पृथक राज्य के सपने को साकार किया।
उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन (1900-2000)- Uttarakhand State Movement one liner
यहाँ उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन को 1900 से 2000 तक के 100 वर्षों के ऐतिहासिक कालखंड में एक-पंक्ति विवरण के रूप में संक्षिप्त किया गया है, जिसमें हर प्रमुख घटना, आंदोलन, नेता व समाजिक बदलाव को एक-एक पंक्ति में उल्लेख किया गया है, ताकि यह शोध और अध्ययन के लिए सरल, प्रभावी और व्यापक बन सके:
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1905 में खुशीराम आर्य द्वारा टम्टा सुधारिणी सभा की स्थापना हुई।
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1913 में यह सभा शिल्पकार सुधारिणी सभा में परिवर्तित हुई।
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1911 में हरिप्रसाद ने ‘शिल्पकार’ शब्द का प्रयोग दलितों के लिए किया।
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1925 में अल्मोड़ा में पहला वृहद शिल्पकार सम्मेलन हुआ।
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1929 में गांधीजी ने अल्मोड़ा में अस्पृश्यता के खिलाफ सभा को संबोधित किया।
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1930 में पौड़ी जेल में डिप्टी कमिश्नर इबटसन ने अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के साथ दुर्व्यवहार किया।
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इसके विरोध में कोटद्वार व दुगड्डा में सत्याग्रहियों ने इबटसन का रास्ता रोका और काले झंडे दिखाए।
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कप्तान रामप्रसाद नौटियाल ने सेना से इस्तीफा देकर गुजडू में जनशक्ति को संगठित किया।
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23 अप्रैल 1930 को पेशावर कांड में गढ़वाली सैनिकों ने गोली चलाने से इनकार किया।
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वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने “गढ़वाली, सीज फायर!” कहकर इतिहास रच दिया।
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गांधीजी ने चंद्र सिंह गढ़वाली को पवनार आश्रम बुलाकर “गढ़वाली” उपाधि दी।
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राहुल सांकृत्यायन ने ‘वीर चंद्र सिंह गढ़वाली’ पुस्तक लिखी।
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गढ़वाली ने पौड़ी में मार्क्सवादी कार्यालय खोलकर कम्यून की स्थापना की।
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मोतीलाल नेहरू ने 23 अप्रैल को ‘गढ़वाल दिवस’ घोषित किया।
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जून 1930 में कोट सितोंस्यू में कांग्रेस का सम्मेलन हुआ।
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सम्मेलन में गढ़वाली सैनिकों के शौर्य की प्रशंसा की गई।
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26 जनवरी 1930 को राष्ट्रीय झंडा फहराकर स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।
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12 मार्च 1930 को गांधीजी ने दांडी यात्रा शुरू की।
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उत्तराखंड से भैरव दत्त जोशी, खड्ग बहादुर और ज्योतिराम कांडपाल शामिल हुए।
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ज्योतिराम कांडपाल ने अध्यापक पद से इस्तीफा देकर दांडी यात्रा में भाग लिया।
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धरासाणा आंदोलन में कांडपाल को जेल व यंत्रणा झेलनी पड़ी।
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गांधीजी के कहने पर कांडपाल ने देघाट में उद्योग मंदिर आश्रम स्थापित किया।
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कौसानी के पास चनौदा में गांधी आश्रम की स्थापना की गई।
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यह आश्रम भारत छोड़ो आंदोलन का प्रमुख केंद्र बना।
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26 मई 1930 को विक्टर मोहन जोशी ने अल्मोड़ा नगरपालिका में तिरंगा फहराया।
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कुमाऊं में नमक आंदोलन का नेतृत्व गोबिंद बल्लभ पंत ने किया।
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गढ़वाल में प्रताप सिंह नेगी ने नमक आंदोलन का नेतृत्व किया।
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नैनीताल में 27 मई 1930 को बद्रीदत्त पांडे ने भाषण देकर नमक बेचा।
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गोबिंद बल्लभ पंत को 24 मई को ही गिरफ्तार कर लिया गया।
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इंद्र सिंह नयाल ने नमक बनाकर विरोध प्रदर्शन किया।
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अल्मोड़ा में झंडा सत्याग्रह भी चला।
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विक्टर मोहन जोशी के नेतृत्व में छात्रों ने तिरंगे के साथ प्रदर्शन किया।
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लोहाघाट में हर्षदेव औली ने वन आंदोलन का नेतृत्व किया।
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उदयपुर पौड़ी में सत्याग्रहियों ने लूनी जल स्रोत को प्रतीक बनाया।
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25 जून 1930 को नगरपालिका में तिरंगा फहराया गया।
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28 अगस्त 1930 को जयानंद भारती ने जहरीखाल स्कूल में झंडा फहराया।
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सल्ट क्षेत्र में 65 में से 61 गांवों में मालगुजारों ने इस्तीफा दिया।
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गोबिंद राम काला ने सल्ट सत्याग्रह का नेतृत्व किया।
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दुगड्डा राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमुख केंद्र बन गया।
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1930 में दुगड्डा में कुमाऊं कांफ्रेंस आयोजित की गई।
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इंद्र सिंह ने 1933 में मद्रास बम कांड में भाग लिया।
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अंडमान में 20 वर्ष की सजा पाई।
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बच्चूलाल ने ऊंटी बैंक डकैती में भाग लिया।
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18 वर्ष की सजा पाकर अंडमान भेजे गए।
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1906 में मूल निवासियों को शिल्पकार कहा गया।
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1932 में ‘शिल्पकार’ को मान्यता प्राप्त हुई।
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1935 में गढ़वाल के श्रीनगर में दलित महासभा आयोजित हुई।
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अध्यक्षता सी.एच. चौफिन ने की।
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गांधीजी के प्रयासों से हरिजन सेवक संघ की स्थापना हुई।
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इंद्र सिंह नयाल को संघ का अध्यक्ष बनाया गया।
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1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में कुमाऊं का सक्रिय योगदान रहा।
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गांधी आश्रम कौसानी में आंदोलन की योजनाएं बनीं।
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टिहरी में प्रजामंडल आंदोलन शुरू हुआ।
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1947 में स्वतंत्रता के बाद भी टिहरी का भारत में विलय नहीं हुआ।
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1948 में टिहरी जनक्रांति से रियासत का अंत हुआ।
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नरेंद्र नगर में राजा के खिलाफ विद्रोह हुआ।
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चंद्र सिंह गढ़वाली ने टिहरी जनक्रांति में नेतृत्व किया।
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1952 में उत्तराखंड पर्वतीय विकास समिति का गठन हुआ।
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1968 में पर्वतीय राज्य परिषद का गठन हुआ।
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1979 में उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) की स्थापना हुई।
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डॉ. डी डी पंत, इंद्रमणि बडोनी आदि ने राज्य की मांग उठाई।
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बडोनी को उत्तराखंड राज्य आंदोलन का गांधी कहा जाता है।
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1994 में खटीमा गोलीकांड हुआ।
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इस आंदोलन में कई आंदोलनकारी मारे गए।
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2 अक्टूबर 1994 को मसूरी गोलीकांड हुआ।
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महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार व अत्याचार हुआ।
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रामपुर तिराहा कांड में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलीं।
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राज्य निर्माण आंदोलन व्यापक रूप ले चुका था।
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‘उत्तराखंड नहीं तो वोट नहीं’ नारा लोकप्रिय हुआ।
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राज्य आंदोलन का केंद्र दिल्ली, देहरादून, पिथौरागढ़ आदि बने।
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आंदोलन में छात्रों, महिलाओं, किसानों ने भाग लिया।
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गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग भी उठी।
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1996 में राज्य के समर्थन में विभिन्न दलों ने प्रस्ताव पारित किया।
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1998 में केंद्र सरकार ने नए राज्य के गठन की घोषणा की।
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9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड 27वां राज्य बना।
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पहले अंतरिम मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी बने।
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बाद में नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने।
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उत्तरांचल नाम से राज्य की स्थापना हुई।
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2007 में राज्य का नाम बदलकर उत्तराखंड किया गया।
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गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया।
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उत्तराखंड आंदोलन महिलाओं की सक्रियता के लिए भी प्रसिद्ध हुआ।
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‘नारी शक्ति’ आंदोलन का सबसे सशक्त पक्ष रही।
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आंदोलन के दौरान करीब 50 से अधिक लोग शहीद हुए।
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उत्तराखंड आंदोलन भारत के सफलतम जन आंदोलनों में से एक रहा।
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इसने लोकतांत्रिक मूल्यों और जनशक्ति की शक्ति को सिद्ध किया।
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राज्य गठन के पश्चात विकास की नई राहें खुलीं।
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पहाड़ की संस्कृति, भाषा, शिक्षा और राजनीति को नई पहचान मिली।
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आंदोलन ने क्षेत्रीय अस्मिता को राष्ट्रीय मंच पर पहुंचाया।
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उत्तराखंड की चेतना को जन-जन तक जागृत किया।
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यह आंदोलन मात्र भौगोलिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण था।
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राज्य गठन आंदोलन ने स्थानीय नेताओं को नई पहचान दी।
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मीडिया की भूमिका इस आंदोलन में निर्णायक रही।
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2000 के बाद भी गैरसैंण राजधानी की मांग जारी रही।
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2020 में गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया।
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राज्य आंदोलन आज भी एक प्रेरणा है।
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उत्तराखंड राज्य आंदोलन को विद्यालयों में पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।
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हर साल 9 नवंबर को उत्तराखंड दिवस मनाया जाता है।
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आंदोलन की स्मृति में अनेक स्मारक व संग्रहालय बनाए गए हैं।
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इस आंदोलन ने ‘जनता सरकार की जननी है’ का संदेश दिया।
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उत्तराखंड राज्य आंदोलन इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
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