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मिलिए बूंखाल में बलि प्रथा बंद करवाने वाले पीताम्बर सिंह रावत से

पीताम्बर सिंह रावत

पीताम्बर सिंह रावत

पीताम्बर सिंह रावत: पौड़ी गढ़वाल जिले के थैलीसैंण विकासखंड के राठ क्षेत्र में स्थित ऐतिहासिक बूंखाल कालिंका मेला एक समय पशु बलि प्रथा के लिए विख्यात था। यहां वर्षों से चली आ रही इस कुप्रथा में मेले के दिन हजारों पशुओं की बलि दी जाती थी, जिससे पूरे क्षेत्र में रक्त की नदियां बह जाती थीं। यह प्रथा अशिक्षा और अंधविश्वास के चलते वर्षों तक चली आ रही थी, लेकिन पीताम्बर सिंह रावत के प्रयासों ने इसे बदलने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया। पीताम्बर सिंह रावत का नाम उन कुछ लोगों में शुमार है जिन्होंने इस कुप्रथा को रोकने के लिए अथक संघर्ष किया और आखिरकार सफल भी हुए।

पीताम्बर सिंह रावत की कहानी

बूंखाल में बलि प्रथा की शुरुआत और अंत:

सन 1999 में, पीताम्बर सिंह रावत भी बूंखाल मेला में पशु बलि के साक्षी बने थे। उस समय उन्होंने बागी (भैंसा) और खाडु (मेंढ़ा) की बलि देखी थी, जो उनकी आत्मा में गहरी पीड़ा छोड़ गई। उन्होंने तत्काल इस प्रथा को समाप्त करने का संकल्प लिया, भले ही यह कार्य कठिन और चुनौतीपूर्ण था।

रावत ने बताया कि बूंखाल में बलि प्रथा को रोकने के लिए उन्होंने अकेले ही अपनी यात्रा शुरू की। उन्हें यह भी एहसास था कि लोगों को समझाना और उनकी सोच बदलना आसान नहीं होगा। लेकिन उनका विश्वास था कि यदि वे अपने प्रयासों में दृढ़ रहें तो सफलता मिलेगी।

संघर्ष और प्रयास

पहली यात्रा और संघर्ष:

2005 में, पीताम्बर सिंह रावत ने अपनी पहली यात्रा शुरू की। उन्होंने महाराष्ट्र के चारोटी से उत्तराखंड के बूंखाल तक 16 दिन की यात्रा की। इस दौरान उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा, लेकिन उनका हौसला और दृढ़ता उन्हें मंजिल तक पहुंचाने में मददगार रही। इसके बाद उन्होंने अनेक यात्राएं कीं और समाज को पशु बलि प्रथा के खिलाफ जागरूक किया।

रावत ने न केवल बोलने से बल्कि अपने कार्यों से भी यह दिखाया कि बलि प्रथा को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जा सकते हैं। उन्होंने बलि कुंड को बंद करने के लिए अपने हाथों से काम किया और समाज के लोगों को समझाया कि यह प्रथा केवल अंधविश्वास और परंपरा से जुड़ी हुई है, जो किसी भी तरह से सभ्यता के लिए सही नहीं है।

चुनौतियां और सफलता

सामाजिक विरोध और प्रशासनिक समर्थन:

पीताम्बर सिंह रावत को उनके प्रयासों के दौरान सामाजिक और प्रशासनिक दोनों स्तरों पर भारी विरोध का सामना करना पड़ा। चोपड़ा गांव के चक्करचोटया, गोदा गांव के पुजारी और मलंड गांव की भूमि जैसे क्षेत्रीय लोग बलि प्रथा के साथ जुड़े हुए थे। उनका मानना था कि जो कोई भी इस प्रथा के खिलाफ काम करेगा, उसकी जान से मारने की धमकी दी जाएगी।

हालांकि, रावत की दृढ़ता और सामाजिक समर्थन ने धीरे-धीरे इस कुप्रथा को समाप्त करने में मदद की। उन्होंने प्रशासन से भी सहयोग मांगा और बार-बार जिलाधिकारी को पत्र लिखकर इस प्रथा को रोकने की मांग की।

सफलता की ओर:

2008 में, पीताम्बर सिंह रावत ने न केवल बलि कुंड को बंद किया, बल्कि उसे गंगा में विसर्जित कर दिया। उनके इस कदम ने पूरे क्षेत्र में एक नई सोच को जन्म दिया। धीरे-धीरे लोग समझने लगे कि पशु बलि किसी भी धार्मिक या सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा नहीं होनी चाहिए।

शिक्षा और जागरूकता

पीताम्बर सिंह रावत ने अपने प्रयासों से न केवल बलि प्रथा को रोका, बल्कि इस विषय पर व्यापक जागरूकता भी फैलायी। उन्होंने अपने गांव, डुंगरीखाल में सामाजिक बदलाव लाने का बीड़ा उठाया और अन्य लोगों को भी इसमें शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उनका प्रयास न केवल उत्तराखंड बल्कि पूरे भारत के लिए एक मिसाल बन गया है कि कैसे दृढ़ निश्चय और सामाजिक समर्थन से सामाजिक कुप्रथाओं को रोका जा सकता है।

पीताम्बर सिंह रावत की कहानी उन नायकों की है जिन्होंने अपनी संस्कृति और समाज को बदलने के लिए अपने जीवन को जोखिम में डाल दिया। उनका संघर्ष न केवल पशु बलि प्रथा के खिलाफ था, बल्कि उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि सही इरादे और कड़ी मेहनत से समाज में बदलाव लाया जा सकता है। उनके प्रयास आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं और भविष्य में भी प्रेरणादायक रहेंगे।

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